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कुमाऊं का वह महान स्वतंत्रता सैनानी जिसकी ईमानदारी के महात्मा गांधी भी थे मुरीद

– ज्योतिराम कांडपाल ने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह से प्रेरित होकर शिक्षक की नौकरी से इस्तीफा देकर लिया था आंदोलन में भाग
PEN POINT, DEHRADUN : साल 1892 में अल्मोड़ा के चौंकोट क्षेत्र के पठाना गांव में जन्में ज्योतिराम कांडपाल अपनी बुद्धिमता के चलते उस क्षेत्र के इकलौते स्कूल में प्रधानाचार्य का पद पा चुके थे। साल 1926 तक वह आम आदमी की तरह जिंदगी गुजर बसर कर रहे थे। शिक्षक थे तो पूरे क्षेत्र में मान सम्मान भी भरपूर था, घर की माली हालत ठीक तो नहीं थी लेकिन तनख्वाह से रोजी रोटी चल रही थी। लेकिन, साल 1926 में जब अल्मोड़ा में महात्मा गांधी पहुंचते हैं यह शिक्षक उनसे मिलता है। कुछ मिनटों की मुलाकात के दौरान ज्योतिराम कांडपाल महात्मा गांधी की इस कदर मुरीद हो जाता है और नौकरी छोड़कर आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी का साथ देने के लिए साबरमती आश्रम पहुंच जाता है। उसके समपर्ण को देखकर महात्मा गांधी उसे वापिस भेज पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों में आजादी के आंदोलन की अलग जगाने की जिम्मेदारी सौंप देते हैं। वह शख्स अपने ज्ञान के साथ ही अपनी ईमानदारी की वजह से वह महात्मा गांधी तक को अपना मुरीद बना चुके थे। नमक आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के साथ जेल जाने वाले ज्योतिराम कांडपाल से महात्मा गांधी इस कदर आकर्षित हो चुके थे उन्हें कुमाऊं में आश्रम स्थापित कर आजादी का आंदोलन चलाने का अनुरोध किया।

'Pen Pointसाल 1926 में जब महात्मा गांधी अल्मोड़ा पहुंचे थे तब उस दशक के दौरान पूरे क्षेत्र के महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य का पद संभालने वाले शिक्षक ज्योतिराम कांडपाल महात्मा गांधी से मिले और उनके मुरीद हो गए। गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने शिक्षक पद से इस्तीफा देकर साबरमती आश्रम का रूख किया। बाकी सत्याग्रहियों की तरह ही उन्होंने सबसे पहले उन्होने कताई-बुनाई का प्रशिक्षण लिया। हिंदी में अच्छी पकड़ होने के चलते ज्योतिराम कांडपाल महात्मा गांधी के हिंदी में पत्र लिखने का काम भी देखने लगे। 1930 में महात्मा गांधी के नमक आंदोलन के जरिए ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने के लिए पूरा देश महात्मा गांधी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का फैसला ले चुका था। उत्तराखंड के तीन व्यक्ति भी इस गांधी की यात्रा के साथी बनने के लिए साबरमती आश्रम पहुंचे थे। भैरव दत्त जोशी, खड़क बहादुर के साथ इस यात्रा में हिस्सा लेने वालों में ज्योतिराम कांडपाल भी शामिल थे। जब नमक यात्रा के दौरान अंग्रेजों ने गांधी जी को गिरफ्तार किया तो उनके साथ गिरफ्तार होने वाले ज्योतिराम कांडपाल भी थे। जेल से रिहा होने के बाद महात्मा गांधी का विश्वास जीत चुके ज्योतिराम कांडपाल को सरोजनी नायडू के नेतृत्व में गुजरात के धरासाणा में नमक डिपो पर धरना देने के लिए भेजा गया। वह इस बेहद महत्वपूर्ण घटना में हिस्सा लेने वाले उत्तराखंड के इकलौते स्वयंसेवक थे। नमक डिपो पर धरना देना अंग्रेजों को कतई रास नहीं आया। सरोजनी नायडू और मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में इस धरने में 2500 स्वयंसेवकों ने हिस्सा लिया। सरोजनी नायडू की सभी को सख्त हिदायत थी कि अंग्रेजी सरकार इस आंदोलन को कुचलने के लिए सब कुछ करेगी लेकिन स्वयंसेवकों को हिंसा से दूर रहना है। पुलिस ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए बर्बर तरीके अपनाए लेकिन आंदोलनकारियों को वह डिगा नहीं सके।
धरासणा के सफल सत्याग्रह के बाद ज्योतिराम कांडपाल महात्मा गांधी के बेहद करीबी लोगों में शामिल हो गए। महात्मा गांधी ने ज्योतिराम की आजादी की लड़ाई के प्रति समर्पण को देखते हुए उन्हें कुमाऊं क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन को धार देने की जिम्मेदारी सौंपी। महात्मा गांधी ने ज्योतिराम कांडपाल को कुमाऊं क्षेत्र में आश्रम स्थापित कर लोगों को आजादी के अहिंसापूर्ण संघर्ष के लिए तैयार करने का अनुरोध किया। ज्योतिराम कांडपाल भी महात्मा गांधी के इस अनुरोध पर वापिस कुमाऊं पहुंच गए और देघाट में उद्योग मंदिर आश्रम की स्थापना की। यहां स्थानीय लोगों को कताई-बुनाई के काम में लगाया जाता और महात्मा गांधी के आदर्शों व लक्ष्यों के अनुरूप आश्रम का संचालन किया जाता। महात्मा गांधी ने इस आश्रम के संचालन के लिए ज्योतिराम कांडपाल को हर महीने 100 रूपए भेजने शुरू कर दिए। लेकिन, ईमानदार ज्योतिराम कांडपाल ने पहले ही महीने 50 रूपए यह कहकर गांधी जी को वापिस भेज दिए कि आश्रम के संचालन और अपने खर्चे के लिए हर महीने 50 रूपए पर्याप्त बताए।

'Pen Point
आश्रम से ही देश के स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ज्योतिराम कांडपाल अंग्रेजों की आंख में हमेशा खटकते रहे। साल 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लेने के आरोप में अंग्रेज सरकार ने इन्हें फिर एक साल की कठोर कारावास और 200 रूपए का जुर्माने की सजा सुनाई। लेकिन, ज्योतिराम जेल जाने से पहले संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में आजादी के संघर्ष की अलख जगा चुके थे। 19 जनवरी 1938 को लंबी बीमारी के बाद केवल 46 साल की उम्र में ज्योतिराम कांडपाल का देहांत हो गया।

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