बड़े काम का है थुनेर का पेड़
– कैंसर अवरोधी तत्वों के साथ ही कई औषधीय गुणों से भरपूर है हिमालयी क्षेत्र में उगने वाला थुनेर का पेड़, यूरोपीय देशों में तैयार होती है कैंसर की दवा
PEN POINT, DEHRADUN : यूं तो हिमालयी क्षेत्रों में उगने वाला हर पेड़ पौधा अपने आप में औषधीय गुणों को समेटे हुए है। साल भर हरे भरे रहने वाले जंगलों में उगने वाला हर पेड़, पौधा विशेष औषधीय गुणों से भरा है लेकिन इनमें से थुनेर का पेड़ सबसे खास है। बारह महीने हरा भरा रहने वाला थुनेर अपने भीतर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से लड़ने के गुण समेटे हुए है तो इसकी छाल और पत्तियों में भी कई औषधीय गुण हैं।
थुनेर, समुद्रतल से 7000 फीट से अधिक ऊंचाई पर उगने वाला और बारह महीने हरा भरा रहने वाला थुनेर बड़े काम का पड़े है। थुनेर की पत्तियों से लेकर इसकी छाल जहां विभिन्न औषधीय गुणों की खान है तो इसकी सूखी लकड़ी जलावन के लिए सबसे आदर्श लकड़ियों में शुमार की जाती है। साल 1967 में यूरोप में थुनेर के पेड़ पत्तियों में एक विशेष औषधीय तत्व खोजा गया जिसमें कैंसर से लड़ने के गुण मौजूद थे। इसके बाद थुनेर के पेड़ से कैंसर के उपचार के दौरान की जानी वाली किमोथैरपी की दवा पासलीटेक्सल यानि टेक्सल की दवा बनाई जाने लगी। थुनेर का वानस्पतिक नाम टेक्सस वकाटा है। भारत में हिमालयी क्षेत्र के सदाबहार जंगलों में उगने वाला थुनेर भी साल भर हरा भरा रहता है। कैंसर अवरोधी तत्वों के बावजूद हिमालयी क्षेत्रों में उगने वाले थुनेर का व्यवसायिक प्रयोग तो कभी किया नहीं गया लेकिन ऊंचाई वाले इलाकों में थुनेर की पत्तियों और खाल को स्थानीय लोग चाय के रूप में जरूर उपयोग करते रहे हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मवेशियों के साथ बुग्यालों में रहने वाले ग्रामीण, भेड़ बकरी पालक थुनेर की खाल को पानी में उबालकर चाय के रूप में इस्तेमाल करते हैं। थुनेर के इस पेड़ में सिर्फ कैंसर से ही लड़ने के गुण नहीं है बल्कि आयुर्वेद में थुनेर के पेड़, पत्तियों, खाल का कई बीमारियों के उपचार में सदियों से इस्तेमाल होता रहा है। आयुर्वेद के क्षेत्र में चर्चित बाल कृष्ण ने अपने एक लेख में भी थुनेर के औषधीय उपयोगों के बारे में बताया है। बालकृष्ण की माने तो थुनेर कड़वा, मधुर, तीखा, ठंडा, गुरु, रूखा, स्निग्ध, कफ,पित्त और वात को कम करने वाला, मोटापा को कम करने वाला, शुक्रवर्धक, सुगन्धित, रुचिकारक, कमजोरी को दूर करने वाला तथा पुष्टिवर्धक होता है। यह बुखार, कृमि, कुष्ठ, अत्यधिक प्यास, जलन, बदबू के इलाज में फायदेमंद होता है। थुनेर के मूल से बने अर्क या काढ़ा का प्रयोग करने से शिरशूल यानि सिरदर्द तथा शंखक के इलाज में लाभ मिलता है। इसके साथ ही सांस संबंधी समस्या से राहत पाने में थुनेर का काढ़ा बनाकर पीने से कफ निकलने में मदद मिलती है। इससे खांसी तथा श्वास या सांस संबंधी बीमारियों में फायदेमंद होता है। इसके अलावा पेट, लीवर से जुड़ी समस्याओं में भी थुनेर को फायदेमंद बताया गया है।
हालांकि, उत्तराखंड में उगने वाले थुनेर का व्यवसायिक उपयोग तो नहीं किया जाता है लेकिन जलावन लकड़ी के लिए सबसे आदर्श माने जाने के चलते इसका व्यापक पैमाने पर दोहन किया जाता है। थुनेर की लकड़ी जलाने से कोयला उपलब्ध होता है जो हिमालयी क्षेत्र में लोहे का काम करने वाले स्थानीय लोहारों के काम आता है। साथ ही यह उन चुनिंदा पेड़ों में से है जिसकी लकड़ी जलने के बाद अच्छी गुणवत्ता के कोयले में तब्दील हो जाती है लिहाजा स्थानीय लोहार के साथ ही सर्द इलाकों में इसका बड़े पैमाने पर दोहन होता है। वहीं, साल भर हरा भरा रहने के साथ ही अपने स्वाद और औषीधीय गुणवत्ता के चलते लंगूर, बंदूर भी थुनेर के पेड़ों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। पेड़ों की पत्तियों समेत छाल को निकाल कर बंदर, लंगूर इन पेड़ों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं।