दो सौ साल पहले अंग्रेजों ने महसूस की थी उत्तराखंड में चाय की महक
– उत्तराखंड में चाय उत्पादन का सफर होने जा रहा दो सौ साल का, दो सदी के इस सफर में चाय उत्पादन पहुंचा अर्श से फर्श तक
PEN POINT, DEHRADUN : आम जीवन का हिस्सा बन चुकी चाय का सफर उत्तराखंड में बड़ा रोचक रहा है। उत्तराखंड में चाय उत्पादन के प्रयासों को दो सौ साल होने को हैं। इन दो सौ सालों के सफर में उत्तराखंड में चाय ने बुलंदियों को भी छुआ तो आज गुमनामी की हालत में भी पहुंच गई। करीब सवा सौ साल पहले तक प्रदेश भर के 10 हजार हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में फैले चाय के बागान अब 11 सौ हेक्टेयर पर आकर सिमट गए हैं। ये मामूली पैदावार भी सरकारी रहम ओ करम पर है। शुरूआती दौर में दुनिया भर अव्वल चीन की चाय को टक्कर देने वाली उत्तराखंड की चाय अब पूरी तरह से गुमनाम है। जब अंग्रेजों ने राज्य के पर्वतीय इलाकों में चाय की महक महसूस की, तो बड़े पैमाने पर यहां चाय का उत्पादन शुरू कर दिया। दर्जनों चाय बागान विकसित किए गए, चाय फैक्ट्री भी लगवाई गई। एक दौर ऐसा भी था जब देश विदेश में चाय के शौकीन उत्तराखंड की चाय की चुस्कियां लेे रहे थे। लेकिन कभी बुलंदियों को छू रही उत्तराखंड की चाय अब गुमनाम सी हो गई है।
साल था 1824, कुमाऊं ब्रिटिश सरकार के अधीन आ चुका था। ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर ने एक लेख के जरिए अंग्रेजों का ध्यान कुमाऊं में चाय उत्पादन की तरफ खींचा। उस लेख में हेबर ने दावा किया कि कुमाऊं की धरती पर चाय के पौधे प्राकृतिक रूप से उग रहे हैं लेकिन काम में नहीं लाए जा रहे हैं। हेबर ने उस लेख में लिखा था कि कुमाऊं की मिट्टी चीन के चाय उत्पादक इलाकों की मिट्टी से मेल खाती है और यहां चाय उत्पादन की भरपूर संभावनाएं हैं। इसके बाद कुमाऊं में चाय उत्पादन पर अंग्रेजों का ध्यान गया और सरकारी वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डॉ. रॉयल को इस बावत रिपोर्ट भेजने के निर्देश दिए गए। डॉ. रॉयल ने कुमाऊं क्षेत्र भ्रमण कर 1827 में ईस्ट इंडिया कंपनी को रिपोर्ट भेज कुमाऊं की भौगोलिक परिस्थितियों को चाय उत्पादन के लिए मुफीद बताया। साल 1834 में गर्वनर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कुमाऊं में चाय उत्पादन के लिए एक टी कमेटी का गठन किया जिसे कुमाऊं के लिए चाय की पौध उपलब्ध करवाने के साथ ही चीनी विशेषज्ञों की मदद से चाय उत्पादन को धरातल पर उतारना था। इसके एक साल बाद ही कलकत्ता से 1834 के दिसंबर महीने में दो हजार चाय के पौधों की खेप कुमाऊं पहुंची। इसके साथ ही उत्तराखंड में चाय उत्पादन के सफर की आधिकारिक शुरूआत हो गई। कुमाऊं में चाय के पौधों की खेप पहुंचने के बाद अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर तथा भीमताल के पास भरपुर में चाय की पौधशालाएं शुरू की गई। साल 1835 में टिहरी राज्य में भी चाय की खेती शुरू करने का जिक्र मिलता है।
इस दौरान तत्कालीन संसद ने भी नया कानून बनाकर भारत में रह रहे अंग्रेजों को निजी संपति रखने की अनुमति दे दी। इस अनुमति के बाद कुमाऊं क्षेत्र के उन टीलों को अंग्रेजों ने अपने पास रख लिया जिसमें सबसे पहले प्राकृतिक रूप से चाय के पौधे मिले थे जिसके आधार पर कुमाऊं में चाय उत्पादन का सफर शुरू हो सका। ईस्ट इंडिया कंपनी की योजना थी कि कंपनी के साथ ही निजी लोग भी चाय उत्पादन के लिए आगे आएं और चाय बागान स्थापित करें।
इसी क्रम में सहारनुपर स्थित बोटनीकल गार्डन के सुपरिनटैडेंट डॉ. फाल्कनर ने अल्मोड़ा के लक्ष्मेश्वर में पहला चाय का बागान स्थापित किया। चीनी विशेषज्ञों की मदद से यहां चाय उगाने का प्रयास सफल हुआ। उस दौरान विशेषज्ञों ने कुमाऊं में उग रही इस चाय की गुणवत्ता असम में उग रही चाय से बेहतर मानी। कुमाऊं में अपने बगीचे से चाय के कुछ नमूने डॉ. फॉल्कनर अपने साथ इंग्लैंड लेकर गए तो अंग्रेज भी इस चाय के मुरीद हो गए और अंग्रेजों ने तब की चीन से आयात की जा रही उलांग चाय के स्वाद के समान ही कुमाऊं में उगी इस चाय को बताया।
साल 1838 के बाद कुमाऊं के अलग अलग क्षेत्रों में चाय के बागान स्थापित किए जाने लगे। साल 1844 में देहरादून में भी अंग्रेजों ने 400 हेक्टेयर में चाय के बागान स्थापित किए। इससे पहले 1843 में गढ़वाल क्षेत्र में अलग अलग हिस्सों में चाय बागान स्थापित किए गए। कुमाऊं के साथ ही चाय के बागानों का प्रसार गढ़वाल क्षेत्र में भी होने लगा। 1847 तक गढ़वाल क्षेत्र में केवल 18 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय का उत्पादन होता था जो साल 1859 तक बढ़कर 350 हेक्टेयर तक पहुंच गया। कुमाऊं की तरह ही गढ़वाल के तकरीबन हर हिस्से में अंग्रेजों ने चाय के बागान स्थापित कर दिए। लेकिन उद्देश्य था कि निजी लोग अंग्रेजों से खरीदकर इन बागानों को संचालित करें। 1897 तक ही गढ़वाल क्षेत्र में चाय का 25.7 कुंतल उत्पादन होने लगा तो एक चीनी चाय उत्पादन ने पौड़ी गढ़वाल के निकट एक सरकारी चाय की फैक्ट्री स्थापित कर दी। लेकिन, इसके बाद राज्य में चाय उत्पादन के बुरे दिन भी शुरू होने लगे। राज्य में चाय की खेती फल फूल ही रही थी कि असम, नीलगिरी, दार्जिलिंग और श्रीलंका में उगाई जाने वाली चाय देश भर में पहुंचने लगी तो राज्य में उगने वाली चाय की मांग घट गई। इसका असर यह हुआ कि जहां साल 1880 तक प्रदेश भर में 10,937 हेक्टेयर भूमि पर चाय की खेती होती थी वह 1911 यानि तीन दशकों में ही घटकर 2 हजार हेक्टेयर तक सिमट कर रह गई। इसके बाद कुमाऊं क्षेत्र में लोगों ने फलों के उत्पादन में मुनाफा पाया तो चाय बागानों को हटाकर फलों के बगीचे विकसित करने शुरू कर दिए। पहले विश्व युद्ध के खत्म होने तक राज्य में चाय उत्पादन तकरीबन दम तोड़ चुका था और गिनती के ही चाय बागान यहां बच गए थे जो आजादी के बाद भी चलते रहे। उत्तराखंड में एक पूरी सदी में ही चाय का सफर बुंलदियों को छूकर गुमनामी में चला गया।