2024 से पहले किस करवट बैठेगा सियासी ऊंट ?
Pen Point, Dehradun : अक्सर सियासत के बारे में बात करते हुए कहावत कही जाती है कि सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा। दरअसल यह कहावत ऊंट के बैठने के खास पैटर्न को देखते हुए कही जाती हैं। आम आदमी को पता नहीं चलता कि ऊंट किस करवट बैठने वाला है, लेकिन ऊंट के व्यवहार के जानकार इस बारे में कयास लगा लेते हैं।
देश के सियासी ऊंट की बात करें तो जानकार उसकी करवट को समझने लगे हैं। अगले साल अब तक देश में नई सरकार का गठन हो चुका होगा। उससे पहले इसी साल दिसंबर और 2024 के शुरूआती महीनों में छत्तीसगढ़, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, राजस्थान और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं। राजनीतिक जानकार इन राज्यों में बीजेपी की हालत बहुत ज्यादा ठीक नहीं बता रहे हैं। माना जा रहा है कि अगर ऐसा चुनावी नतीजों में भी देखा गया, तो इसका असर लोक सभा चुनाव पर भी पड़ना तय है। हालाँकि बीते दो चुनाव में इन राज्यों में विधानसभा और लोकसभा का वोटिंग पैटर्न अलग-अलग रहा है।
देश में जमीनी स्तर पर अब बदलते हालात को देखते हुए कहा जा रहा है कि जरूरी नहीं कि बदले हालात में विधानसभा और लोकसभा चुनाव के पैटर्न का दोहराव देखने को मिले। राज्यों में स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय राजनीतिक नेतृत्व और क्षेत्रीय मुद्दे लोगों की परेशानी को बढ़ा रहे हैं। जिसका जवाब भी बीजेपी की टॉप लीडरशिप को ही देना है। क्योंकि राज्यों में जिन कन्धों पर सत्ता संभालने की जिम्मेदारी तय की गयी है, वे ज्यादातर केंद्रीय नेतृत्व की पसंद पर ही काबिज हैं। ऐसे में स्थानीय नेतृत्व पार्टी स्तर पर कमजोर होता दिख रहा है। कर्नाटक चुनाव हारने के बाद बीजेपी का मातृ संगठन संघ इस बात को भली भांति भांप रहा है। उसके प्रभाव वाली एक पत्रिका में इस बात पर एक विशेष सम्पादकीय इसकी तस्दीक भी करता है।
ऑर्गनाइज़र में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व और प्रभावी कार्य के बिना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस पत्रिका के इस विशेष एडिटोरियल लेख को आधार बना कर आईई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पत्रिका की ओर से कहा गया है, ‘भाजपा के लिए अपनी स्थिति का जायजा लेने का यह सही समय है। क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व और प्रभावी कार्य के बिना प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व एक वैचारिक गोंद के रूप में पर्याप्त नहीं होगा। जब राज्य स्तर का शासन चालू होता है, तो सकारात्मक कारक, विचारधारा और नेतृत्व, भाजपा के लिए वास्तविक होते हैं।
कर्नाटक की पूर्ववर्ती बोम्मई सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की ओर इशारा करते हुए और चुनाव परिणामों को ‘आश्चर्यजनक’, लेकिन ‘चौंकाने वाला नहीं’ बताते हुए संपादकीय में कहा गया, ‘प्रधानमंत्री मोदी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद पहली बार भाजपा को विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोपों का बचाव करना पड़ा।
इसमें यह भी कहा कि यह परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के मनोबल को बढ़ावा देंगे। रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान का नेतृत्व करने के बावजूद भाजपा ने पूरे राज्य में खराब प्रदर्शन किया। प्रधानमंत्री ने चुनाव को डबल इंजन सरकार के लिए वोट के रूप में बताते हुए अभियान को एक व्यक्तिगत स्वरूप देने की भरसक कोशिश की जो नाकाम साबित हुई। साथ ही अभियान के आखिरी दौर में चुनाव में पार्टी का परंपरागत हिंदुत्व का सहारा भी लिया गया, जिसमें बजरंग बली का आह्वान करके इसे ध्रुवीकरण की तरफ मोड़ने पर पूरी एनर्जी लगाई गयी, लेकिन वो सब असरहीन रहा।
इतना ही नहीं संपादकीय में यह भी सुझाव दिया गया है कि कांग्रेस चुनावी रूप से अच्छा प्रदर्शन करती दिख रही है, ‘जब राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व की भूमिका न्यूनतम हो और चुनाव अभियान स्थानीय स्तर पर रखा जाए। तो उसके साथ जन जुड़ाव हो जाता है। यही अब बदलते हुए राजनीतिक पैटर्न में दिखाई देने लगा है।
ये तो रही बात ऑर्गनाइजर से जुडी हुई। इससे पहले जो बात संघ ने समझी है उसके मुताबिक राज्य विधानसभा चुनाव का पैटर्न अब कांग्रेस बदलने लगी है। उन चुनावों को राज्यों के स्थानीय मुद्दों और नेतृत्व के इर्दगिर्द कांग्रेस ने रखना शुरू कर दिया है। इसका जीता जागता उदाहरण हिमाचल और कर्नाटक के चुनाव में साफ तौर पर देखा जा चुका है। जिसका कांग्रेस को बड़ा लाभ हुआ है। क्योंकि स्थानीय मुद्दे लोगों से सीधे जुड़े होते हैं। केंद्र सरकार और उसके नेतृत्व का काम अंतराष्ट्रीय स्तर पर देश को आगे बढ़ाने वाली नीतियों को बनाने और देश के राज्यों की स्थानीय जरूरतों पर राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाले प्रस्तावों के हिसाब से बजट आवंटन करने वाली दिशा में होना चाहिए ऐसी भारतीय संविधान में व्यवस्थाएं की गयी हैं।