गीता उनियाल के बहाने : मंचों पर दमकते चेहरों की जिंदगी इतनी स्याह क्यों है ?
PEN POITN, DEHRADUN : उत्तराखंड फिल्म जगत की मशहूर अभिनेत्री गीता उनियाल का मंगलवार 20 फरवरी की रात को निधन हो गया। वह लंबे समय से कैंसर से जूझ रही थी। गीता उनियाल ने उत्तराखंड की संस्कृति को प्रदर्शित करने में अपनी अहम भूमिका निभाई। देश-विदेश के मंचों पर गीता ने उत्तराखंड की संस्कृति को नई पहचान दी। गीता ने कई एल्बम में काम किया, सैकड़ों पहाड़ी गानों में वो नजर आई हैं। उत्तराखंड सरकार की संस्कृति से जुड़ी प्रचार सामग्री का वह प्रमुख चेहरा थीं। आज भी कई सरकारी होर्डिंग्स, ब्रोशर, पोस्टरों और पत्र पत्रिकाओं में परंपरागत पोशाक में उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा जा सकता है। लेकिन कैंसर जैसी घातक बीमारी ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। बताया जा रहा है कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर था जिसने बाद में उनके फेफड़ों को भी चपेट में ले लिया। मजबूत इच्छा शक्ति होने बाद भी वह जिन्दगी की जंग हार गयी। साल 2020 में उन्हें कैंसर होने का पता चला था।
अब बात आर्थिक तंगी और उन हालातों की जिससे उत्तराखंड के कई कलाकार जूझ रहे हैं। यह पूरा क्षेत्र असंठित माना जाता है, लेकिन छोटे से राज्य में अधिकांश कलाकार पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते अर्थिग तंगी से सामना कर रहे हैं। ऐसे में किसी घातक बीमारी, दुर्घटना या मृत्यु होने की स्थिति में परिवार के भरण पोषण और इलाज के लिए किसी तरह के आर्थिक फंड या समूहिक बीमा स्कीम की कोई व्यवस्था नहीं है, और न सरकार की तरफ से इस दिशा में कोई ठोस कदम ही उठाए गए हैं।
हालांकि कुछ आपात मामलों में सरकार ने कुछ कलाकारों को स्वास्थ्य सहायता मुहैया जरूर कराई है। लेकिन सभी को यह अवसर इतनी आसानी से नहीं मिल पाते हैं। ऐसे में इस असंगठित क्षेत्र को लेकर यों तो छोटे मोटे तौर पर बात उठती जरूर है, लेकिन वह मुकाम तक नहीं पहुँच पाती। ऐसे में गीता उनियाल की मौत के बाद उनके परिवार और छोटे बच्चों के भरण पोषण के सवाल आज फिर खड़े हो गए हैं।
देहरादून में आयोजित एक शोक सभा के दौरान कुछ कलाकारों ने इस दिशा में ध्यान देने की बात कही। लेकिन बात वहीं आ जाती है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। यह इन कलाकरों की मजबूरी भी है। सरकारी विभागों मसलन संस्कृति और सूचना विभाग से मिलने वाले प्रोग्राम इनकी आवाज को दबने को मजबूर कर देते हैं। बावजूद इसके कि यहाँ से मिलने वाली राशि को कई बार समय और महंगाई की तुलना में ऊँट के मुंह में जीरा के समान करार दिया जाता है, लेकिन फिर भी कोई सांस्कृतिक ग्रुप यहाँ अपनी असल मांग और बात को मजबूती से सरकार के जिम्मेदार महकमों के सामने नहीं रख पाता है।
उत्तराखंड में संगीत के क्षेत्र से जुड़े हुए पंकज राज और मानस राज कहते हैं कि ऐसे में प्रदेश के वरिष्ठ कलाकारों को आगे आना होगा। ताकि राज्य की संस्कृति और लोक कला का जिम्मा उठाने वाले तमाम कलाकारों और उनके आश्रितों के सामने आपात हालातों में आर्थिक तंगी की नौबत खड़ी न हो। इसके लिए कलाकारों को एक पारदर्शी व्यवस्था बनाने के लिए एक होने की दिशा में बढ़ना होगा। जिससे सरकार के सामने एक कलाकार कल्याण कोष जैसी कोई व्यवस्था बनाने की मांग रखी जा सके।
उत्तराखंड फिल्म एसोसिएशन से जुड़े रहे राजेंद्र सिंह रावत बताते हैं- ‘संस्कृति कर्मी या कलाकार कल्याण कोष बनाने की बहुत कोशिशें हुई थी, लेकिन ये कोशिशें धरातल पर नहीं उतर पाई’ उन्होंने कहा- ‘पप्पू कार्की की सड़क दुर्घटना में मौत होने के बाद सरकार की तरफ से मदद की गयी और गीता उनियाल के मामले में भी सरकार ने हेल्प की, लेकिन पेंशन और परिवार के भरण पोषण जैसे तमाम अन्य बिंदुओं पर इस दिशा में कोई नीति नहीं बन पाई है’
राजेंद्र सिंह के मुताबिक यह क्षेत्र असंगठित होने के कारण इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पाया. वो कहते हैं कि इस दिशा में सरकार के बजाय हमें खुद पहले संगठित होना पडेगा। अब हम लोग फिर से इस पर काम करने जा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने साहित्य कला परिषद की उपाध्यक्ष मधु भट्ट से वार्ता की है। जिसमें नीति बनाने की जरूरत है। फिर इसमें चाहे सामूहिक बीमा हो या अन्य बिंदु हों इस पर जो भी दिक्कतें हैं, उस पर हम काम करने जा रहे हैं।
गीता उनियाल के साथ अक्सर कई मंचों, फिल्मों और वीडियो एलबम में काम कर चुकी और उनकी करीबी मित्र मिनी उनियाल ने बताया कि आज गीता के परिवार के सामने बड़ा आर्थिक संकट खड़ा है। इस तरह के हालात तमाम कलाकारों के सामने खड़े हो जाते हैं, खास कर किसी गंभीर दुर्घना या या बीमारी की स्थिति या मृत्यु होने पर। वो कहती हैं इसके लिए हमारे पास कोई ऐसा फंड या आर्थिक सोर्स नहीं है, जिससे कि कलाकारों पर आश्रित लोगों के सामने विकराल आर्थिक परिस्थितियों में मदद पहुंचाई जा सके। इसके लिए हमारे साथ हमारे वरिष्ठ लोगों को आगे आना चाहिए और अगर ऐसा होता है, तो हम सब मिलकर इसमें सहभागी बन सकते हैं।
गौरतलब है कि दिवंगत गीता के पति पेशे से कैमरामैन हैं और उनका काम भी स्थायी नहीं है। लंबे समय तक पत्नी की बीमारी की वजह से उनके काम पर भी असर पड़ा है और अब दो बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी भी उनके अकेले कंधों पर आ गई है।
लोक कलाकार धनराज शौर्य बताते हैं कि इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए संगीत कला और अभिनय क्षेत्र से जुड़े हुए जानकार और जागरूक लोगों के साथ हम प्रयास करेंगे और यह समय की मांग भी है। ताकि सरकार भी कलाकारों के संरक्षण और कल्याण के लिए कुछ ठोस नीति निर्धारित करे। कुल मिलाकर इस असंगठित क्षेत्र को एक सूत्र में लाये जाने की जरूरत है। इसके बाद ही सरकार के सामने कोई ठोस मांग रखी जा सकती है।
वरिष्ठ संस्कृति कर्मी सुदर्शन बिष्ट ने कहा राज्य के कलाकार अपनी क्षमता के हिसाब से राज्य की कला संस्कृति को संरक्षित करने के लिए काम कर रहे हैं। बेहद कम मेहनताने में भी कलाकार काम कर विपरीत और कमजोर आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में इस क्षेत्र से जुड़े हुए तमाम छोटे और गरीब कालाकारों के कल्याण की बात तो होनी ही चाहिए। इसके लिए हमें एकजुटता दिखानी होगी और सरकार तक अपनी बात पहुंचानी होगी।