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कैंडी डे : गुड़ की खांड से लेकर आजकी टॉफी और कैंडी !

PEN POINT, DEHRADUN : आज यानी 4 नवंबर को कई देशों में मनाया जाने वाला कैंडी डे एक मजेदार उत्सव है, जो कई तरह की कैंडी और मिठाइयों को खाने के साथ मनाया जाता है। इसका मकसद पुरानी यादों को मजेदार तरीके के साथ मिलाकर साझा करना है। इसमें बिना उम्र की परवाह किये बचपन की पसंदीदा चीजों का मजा लेना और नए स्वादों की खोज करना है, यह दिन सभी उम्र के लोगों को कैंडी से मिलने वाले मीठे आनंद को अपनाने के लिए आमंत्रित करता है, जो लोगों को मीठे व्यंजनों के लिए आम प्रशंसा के जरिये एकजुट करता है।

कैंडी की कहानी प्राचीन भारत में छठी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में शुरू होती है, जहां “खंडा” के लिए गन्ने का उपयोग किया जाता था, जिससे चीनी के टुकड़े बनते थे।

यह दिन आपको आपके जीवन की सुनहरी बचपन की यादों में ले जाने का जो एहसास करता है वह अपने आप में अद्भुत है। एक तरह से यह मीठे उत्पादों की आधुनिक और कलात्मकता की तारीफ करने और विभिन्न पीढ़ियों को जोड़ने के साथ ही मीठे व्यंजनों के सांस्कृतिक महत्व का सम्मान करने का जरिया है। दिनिया भर में कैंडीज़ के विभिन्न स्वरुप देखने को मिल जाएंगे। इनके स्वाद और सेहत से जुड़ी हुई विभिन्नता के चलते इन्हें दुनियाभर में पहचाना जाता है।

कैंडीज के स्वाद और बनावट का स्वाद लोगों को को खुदसे जोड़ने में मददगार होता है। भारत में इसकी शुरुआत गन्ने से बनने वाले गुड़ की खांड के रूप में मानी जा सकती है। दिनिया में कैंडी को बेहद रचनात्मक ढंग से हजारों ढंग से तैयार किया जाता रहा है। इसे तैयार करने के लिए कैंडी की नई किस्मों को बनाने के प्रयोग किए जाते ही रहे हैं। ये प्रयास आज तो घर घर में अलग अलग ढंग से होता है। स्कूलों में अच्छों के बीच कैंडी-थीम वाली क्लास पार्टियों आयोजित की जाती हैं। भारत में तो मिठाई को लेकर गुड़-खांड से शुरू हुआ सफर हजारों की संख्या में देखा जा सकता है। यहाँ की विभिन्न संस्कृतियों में इसकी अमित छाप साफ़ देखी जा सकती है।

आम तौर पर यह मना जाता है कि मिस्र में कैंडी संरक्षण के लिए शहद से ढके फलों का उपयोग किया जाता था। यह शुरुआती तौर पर कैंडीज के रूप में पाचन सम्बन्धी रोगों के लिए दवा के रूप में ज्यादा फायदेमंद मानी जाती थी। इसके बाद जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति हुई, तो इसने ने कैंडी का लोकतंत्रीकरण कर दिया, जिससे यह आम लोगों की पहुँच में आ गयी। इसके बाद देखने में मिलता है कि 19वीं सदी में अमेरिका में पेनी कैंडीज़ बच्चों के बीच बेहद प्रिय बनकर सामने आई और वह उनकी पसंदीदा बन गई। कैंडी बनाने के में वैश्विक स्तर पर कई प्रयोग हुए, जिनमें पारंपरिक तरीकों से लेकर आधुनिक कारीगरी तक शामिल है। औद्योगीकरण ने इसे अपने आधुनिक स्वरुप चॉकलेट से लेकर गमीज़ तक, कई तरह की मिठाइयों के रूप में बाजार में परोस कर रख दिया है।

आज बड़े बड़े स्वीट शॉप में कई तरह की स्वीट्स के साथ विशेष कैंडी स्टोर्स देखने को मिल जाएंगे। भारत में तो लोग मीठे व्यंजनों को देखा कर उनकी तरफ हमेशा से ही लालायित रहते है। हर ख़ुशी के मौके पर या मेहमान नवाजी में जाने या आने पर मिठाई ले जाने और परोसने का रिवाज है। हालाँकि आज बदलती जीवनशैली के चलते स्वास्थ्य के जानकारी मीठे को एवॉइड करने की सलाह देते है। लेकिन इस सबके बाद भी यहाँ बाजार और घरों में हर त्यौहार उत्सव में मिष्ठान का प्रचलन जारी है।

इस क्रम में बताते है तब देश की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था दो बैलों की जोड़ी, वहीँ उस वक्त की दूसरी बड़ी समझी जाने वाली सोशलिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह था पेड़। किसानों के हक़ की बात करने वाली किसान मजदूर प्रजा पार्टी का निशान था झोपड़ी जो इस वर्ग को प्रतिविम्बित करने का प्रतीक माना गया। ठीक इसी तरह से विचार रखने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया का चुनाव निशान हसिया और बाली था। जबकि आज की कमल निशान वाली बीजेपी की मूल पार्टी रही आल इन्डिया भारतीय जन संघ का चुनाव निशान ये वाला दिया था।

दलितों के हित में आवाज उठाने वाली आल इण्डिया शेड्यूल कास्ट फेडरेसन का चुनाव निशान हाथी था। ये चुनाव निशान आज दलित हितों का दावा करने वाली बीएसपी के पास है। जबकि तब राम राज्य की बात करने वाली अखिल भारतीय राम राज्य परिषद् का निशान उगता हुआ सूरज था। वहीँ कृषि कार लोक पार्टी यह पार्टी भी किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली मानी जाती थी, इसका चुनाव निशान था अनाज ओसाता हुआ किसान। जबकि धर्म की राजनीती के जानी जाने वाली अखिल भारतीय हिंदू महा सभा का चुनाव चिन्ह घुड़ सवार था। तब आल इण्डिया फॉरवर्ड ब्लॉक (मार्क्सिस्ट) का चुनाव निशान शेर था। वहीँ हाथ का पंजा निशान आल इण्डिया फ़ॉरवर्ड ब्लॉक(रुईकार ग्रुप) के पास था। जबकि रिवॉल्टरी सोशलिस्ट पार्टी का फावड़ा बेलचा जबकि रिवॉल्टरी कम्युनिस्ट सोशलिस्ट पार्टी का जलती हुई मशाल चुनाव चिन्ह था। जबकि बोल्शेविक पार्टी का चुनाव चिन्ह सितारा था। ऐसे कई चुनाव चिन्हों के साथ कई राजनीतिक दलों ने देश के पहले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपनी भागीदारी की थी।

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