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चर्खा हो या स्वदेशी आंदोलन, बापू पर सवाल खड़े करते थे गुरुदेव

PEN POINT DEHRADUN : 6 मार्च 1915 वह दिन है जब देश की दो महान विभूतियां पहली बार आमने सामने हुई थीं। महात्‍मा गांधी और रविंद्रनाथ टैगोर। एक महात्‍मा दूसरा गुरू। शांति निकेतन की अपनी दूसरी यात्रा में दोनों की यह ऐतिहासिक मुलाकात हुई। देश ही नहीं दुनिया में ख्‍याति प्राप्‍त इन दोनों महापुरुषों में आपसी संबंध बेहद अनूठा रहा। विचार के स्‍तर पर बहुत सी बातें ऐसी रही जिनमें उन्‍होंने एक दूसरे की खुलकर आलोचना की। लेकिन भाव के स्‍तर पर दोनों एक दूसरे का अगाध सम्‍मान करते थे।

इस ऐतिहासिक मुलाकात के बारे में जितनी भी जानकारियां मिलती हैं। उनके अनुसार महात्‍मा गांधी को शांति निकेतन में कुछ बातें अटपटी लगी। उन्‍हें वहां शिक्षा का महौल और विद्यार्थियों की लगन तो पसंद आई लेकिन उनका मानना था कि छात्रों को अपने कार्य स्‍वयं ही करने चाहिए। गौरतलब है कि शांति निकेतन में छात्रों को रसोईया, सफाईकर्मी और अन्‍य कर्मचारियों की आदत थी। गांधी ने छात्रों को कुछ दिनों तक प्रशिक्षण भी दिया जिससे वे जीवन में आत्‍म निर्भरता की सोच को मन में उतार सकें। लेकिन उनके जाने के बाद हालात फिर पहले जैसे ही हो गए थे।

वहीं गांधी जी के चर्खा प्रेम को गुरुदेव ने आड़े हाथ लिया था। उन्‍होंने अपने लेख ‘कल्‍ट ऑफ चर्खा’ में खुली आलोचना लिखी है। लेकिन दोनों के बीच सबसे चर्चित मतभेद असहयोग आंदोलन को लेकर था। अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ जब गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, उस दौरान टैगोर यूरोप दौरे पर पूरब और पश्चिम के बीच आध्‍यात्मिक एकता का सूत्र तलाश रहे थे। असहयोग आंदोलन के बारे में पता लगते ही उन्‍होंने सीएफ एंड्रूयूज को इसके विरोध में चिट्ठी भेजी। बाद में खुलकर उन्‍होंने इसकी आलोचना की और इसे नकारवादी और अमानवीय विचार बताते हुए असहयोग को भी एक तरह की हिंसा करार दिया।

इसके जवाब में महात्‍मा गांधी ने एक जून 1921 के यंग इंडिा में एक लंबा लेख लिखा जिसका शीर्षक था- कविवर की चिंता। जिसमें उन्‍होंने लिखा-

– ‘मेरी समझ में रवीन्द्र बाबू को असहयोग आंदोलन के अभावात्मक या खंडनात्मक पक्ष से चौंकने की कोई जरूरत नहीं थी. हम लोगों ने ‘नहीं’ कहने की शक्ति बिल्कुल गंवा दी है. सरकार के किसी काम में ‘नहीं’ कहना पाप और अभक्ति गिना जाने लगा था. बोने के पहले निराई करना बहुत जरूरी होता है, जान-बूझकर पक्के इरादे के साथ असहयोग करना वैसा ही है. हर एक किसान जानता है कि फसल बढ़ते रहने की अवधि में भी खुरपी का उपयोग करते रहना जरूरी है.’

टैगोर ने स्‍वदेशी के लिए विदेशी वस्‍त्रों के बहिष्‍कार और उन्‍हें जलाने की गांधी की मुहिम का भी विरोध किया था। उन्होंने इसे ठेठ अर्थशास्त्रीय नज़रिए से देखा और कहा कि चूंकि भारत की एक बड़ी आबादी के पास पहनने को वस्त्र नहीं हैं, इसलिए उसे जो भी वस्त्र मिलता है उसे अपनाना चाहिए। जबकि गांधी इसे न केवल अपने ही अर्थशास्त्रीय नज़रिए से देख रहे थे, बल्कि इसे आत्म-शुद्धिकरण का तरीका मान बैठे थे। इतना तक कि अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा कस्तूरबा को उपहार में दिए गए हाथ से बुनी गई विदेशी सूत की साड़ी तक उन्होंने अपने हाथों से जला दी थी।

1934 में बिहार में भूकंप से बड़ी तबाही हुई थी। जिसे लेकर महात्‍म गांधी ने तमिलनाडु में एक सार्वजनिक सभा में क‍हा कि यह दलितों के प्रति छुआछूत के पाप का ईश्‍वरीय दंड है।

टैगोर ने गांधी के इस वक्तव्य को घोर अंधविश्वास का नमूना करार दिया। इस तर्क को अवैज्ञानिक बताते हुए उन्‍होंने एक व्यंग्यपरक लेख लिखा जिसे स्वयं महात्मा गांधी ने 16 फरवरी, 1934 को अपने जवाब के साथ ‘यंग इंडिया’ में छापा।

टैगोर ने लिखा- इस तरह का तर्क तो महात्माजी के विरोधियों को ही शोभा देता है. दरअसल, गांधी के इस बयान के बाद सनातनियों की ओर से भी तरह-तरह के बयान आने शुरू हो गए थे. किसी सनातनी ने कहा कि देश में जो सूखे और अकाल पड़ते हैं वे दरअसल गांधी के छूआछूत-विरोधी आंदोलनों के ही दुष्परिणाम हैं. किसी ने कहा कि इससे पहले कि भूकंप के लिए गांधीजी के आंदोलनों को दोषी ठहराया जाता, उन्होंने सवर्णों को इसके लिए दोषी ठहराकर बढ़त बना ली है।

किंतु गांधी अपनी बात पर कायम रहे। उन्होंने टैगोर इसका जवाबी लेख भी छापा जिसका शीर्षक था- ‘अंधविश्वास बनाम श्रद्धा’। इसमें उन्होंने लिखा – ‘मेरे इस मंतव्य पर कि बिहार के संकट का संबंध अस्पृश्यता के पाप से है, गुरुदेव ने अभी-अभी जो कुछ कहा है उससे हमारे पारस्परिक स्नेह में कोई अंतर नहीं आ सकता। उनके प्रति जो मेरे मन में अगाध सम्मान है उसके कारण यह स्वाभाविक है कि मैं अन्य आलोचकों की अपेक्षा उनकी आलोचना की ओर और ज्यादा तत्परतापूर्वक ध्यान दूंगा। किंतु उनके वक्तव्य को तीन बार पढ़ जाने के बावजूद मैं इन स्तंभों में लिखी अपनी बातों पर कायम हूं।’

 

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