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स्वामी मनमथन : सागर से निकला मोती जिसने रोशन किया हिमालय

– गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन के अगुवा स्वामी मनमथन की 33वीं पुण्यतिथि आज, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ किया जन को जागरूक
PEN POINT, DEHRADUN : तत्कालीन उत्तर प्रदेश के दौर में पांच दशक पहले अब के उत्तराखंड में कोई भी विश्वविद्यालय नहीं था। महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से संचालित होते थे। उच्च शिक्षा तक पहुंच तब आसान नहीं थी। 70 के दशक के शुरूआती साल में गढ़वाल मंडल में गढ़वाल विश्वविद्यालय शुरू करने की मांग जोर पकड़ने लगी। बड़ी भीड़ सड़कों पर उमड़ने लगी थी, भीड़ का नेतृत्व एक 30-31 साल का मलयाली मूल का युवक कर रहा था। मूल रूप से केरल का रहने वाला यह सन्यासी युवक जिसे लोग स्वामी मनमथन के नाम से जानते थे इस पूरे आंदोलन का अगुवा बना। उत्तराखंड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति का गठन कर अगले दो सालों तक विश्वविद्यालय शुरू करने का आंदोलन जारी रहा। आखिरकार 1 दिसंबर 1973 को गढ़वाल को उसका अपना विश्वविद्यालय मिला, जिसे गढ़वाल विश्वविद्यालय का नाम मिला जो बाद में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम पर हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाने लगा। इस विश्वविद्यालय के आंदोलन का सफल नेतृत्व करने वाले स्वामी मनमथन का सफर समुद्र से हिमालय का रहा और आज के ही दिन किसी सिरफिरे ने गढ़वाल में शांति के दूत, सामाजिक उत्थानों के प्रमुख चेहरा बने स्वामी मनमथन की हत्या कर दी।
स्वामी मन्मथन का जन्म केरल में 18 जून 1939 को हुआ था। उनके पिता शिक्षक थे। उनका मूल नाम था- उदय मंगलम चन्द्र शेखरन मन्मथन मेनन। छोटी उम्र में ही उनमें समाज में व्याप्त असमानता, छुआछूत, शोषण, अंधविश्वास, अभाव और कुरीतियों को लेकर बैचेनी थी। वे अपनी तरह से इनके कारणों को समझने की कोशिश करते रहे। आखिरकार वे मानवता के कल्याण के लिये निकल पड़े। उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। बंगाल, पुड्डुचेरी, नागालैंड, बिजनौर, हरिद्वार से होते हुए सफर को ठिकाना मिला टिहरी गढ़वाल के अंजनीसैंण में। अंजनीसैंण के समीप मां चंद्रबदनी का मंदिर है, जहां 60 के दशक तक बड़े पैमाने पर पशुबलि होती थी। यहां होने वाली बलि प्रथा ने उन्हें बहुत बैचेन किया। इसके खिलाफ उन्होंने लोगों को पशु बलि के खिलाफ जागरूक करना शुरू किया। स्वामी ने पशुबलि के लिये लाये जाने वाले पशुओं के सामने बैठकर लोगों से कहा कि पहले मुझे काटो। उनके साथ बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी धरना दिया। वर्षों तक चले जन जागरूकता कार्यक्रम व  संघर्ष के बाद 1969 में गांधी शताब्दी वर्ष में चंद्रबदनी मंदिर में बलि प्रथा पूरी तरह से समाप्त कर दी गई। इसके बाद कडाकोट पट्टी के क्षेत्रपाल मंदिर में भी बलि प्रथा को समाप्त कराया। बाद में कुंजापुरी लोस्तु में घणियालधार में भी बलि प्रथा का अंत हुआ।
गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन के बाद स्वामी जी की स्वीकार्यता और बढ़ गई। साल 1977 में अंजणीसैंण में मेजर हरिशंकर जोशी ने स्वामी मनमथन को दस एकड़ भूमि दान दी। यहां पर ही 23 सितंबर 1978 को ‘श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम संस्था का निर्माण किया गया। यह आश्रम तब सामाजिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण, शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया। पूरे क्षेत्र में भीषण जलसंकट को देखते हुए स्वामी जी ने इस क्षेत्र में बांज के जंगल पनपाने शुरू किए। यह आश्रम महिलाओं के सशक्तीकरण, पर्यावरण, गैरबराबरी और शिक्षा जैसे मुद्दों पर काम करने का केंद्र बन गया। आश्रम बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों को संरक्षण देने का काम भी करने लगा। पर्वतीय महिलाओं को पशुओं के लिए चारे, जलावन लकड़ियों के लिए दिन भर जंगल में रहना पड़ता था ऐसे में बच्चों की देखरेख संभव नहीं हो पाती थी तो स्वामी मनमथन ने आश्रम में बालबाड़ी का संचालन शुरू किया जहां मां अपने बच्चों को दिन में छोड़ देती और काम से लौटने के बाद घर लेकर जाती। स्वामी मनमथन सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने के साथ ही महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, आत्मनिर्भरता जैसे मुद्दों पर मुखरता से काम कर रहे थे। स्वामी मनमथन की प्रसिद्धि और उनकी क्षेत्र में स्वीकार्यता कई लोगों के गले नहीं उतर रही थी। आज के ही दिन जब स्वामी मनमथन अपने आश्रम में रात सोने की तैयारी कर रहे थे तो निकटवर्ती गांव के ही एक सिरफिरे ने आकर उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया। 6 अप्रैल 1990 की रात 9 बजे सागर से निकला वह मोती जो हिमालय के इस हिस्से को रोशन कर रहा था वह अपनी यात्रा पूरी कर चुका था।

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