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चिपको आंदोलन : जब जंगल बचाने को पेड़ों से लिपट पड़ी महिलाएं

PEN POINT, DEHRADUN : 49 साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने जोशीमठ ब्लॉक के ढाक नाले से लकर रेणी गांव तक के जंगल में 2451 देवदार, कैल, सुरई आदि के पेड़ जंगल के ठेकदार को कटान के लिए आवंटित कर दिए। जिसका मतलब था कि अब जल्द ही इस पूरे हिमालयी इलाके में पेड़ों का कटान शुरू होना था। हालांकि, इससे पहले भी केदारघाटी में जंगलों के कटान का आवंटन हुआ था लेकिन स्थानीय विरोध के बाद यह आवंटन सफल नहीं हो सका और जंगल कटान का काम हाथ में लेने वाले ठेकेदारों को यह काम छोड़ना पड़ा। लेकिन, उत्तर प्रदेश सरकार ने नया इलाका चुन लिया। सरकार ने उम्मीद लगाई थी कि बदरीनाथ घाटी के इन इलाकों में बिना किसी विरोध के जंगलों का सफाया कर दिया जाएगा। लेकिन, सरकार की उम्मीद पर तब पानी फिर गया जब जंगल कटान के आवंटन की खबर मिलते ही क्षेत्र के लोग इसके खिलाफ एकजुट होने लगे।
आज पर्यावरण संरक्षण में देश दुनिया में प्रसिद्ध हुए चिपको आंदोलन की 49वीं वर्षगांठ है। जब अपने जंगलों को बचाने के लिए रैणी गांव की महिलाएं पेड़ों से लिपट गई थी। सामने तेज कुल्हाड़े लिए पेड़ काटने के लिए मजदूर खड़े थे। उनके पीछे मोटी रकम देकर जंगल कटान का काम लिए ठेकेदार। सामने पेड़ों पर लिपटी हुई रैणी गांव की वह महिलाएं जिन्होंने कभी न स्कूल देखा न कभी घरों में कोई प्रतिरोध दिखाया। लेकिन, आज अपने जंगलों को बचाने के लिए वह महिलाएं अपने प्राणों की तक परवाह किए बगैर अपने जंगलों को बचाने के लिए पेड़ों से लिपटी हुई थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने जब जोशीमठ क्षेत्र के जंगलों के कटान का ठेका आवंटित किया तो सबसे पहले जोशीमठ प्रखंड की फरवरी 1974 की बैठक में ब्लॉक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत ने इस आवंटन के विरोध में प्रस्ताव पारित कर क्षेत्र की जनता को वनों के कटान के विरुद्ध एकजुट होने का आवाहन किया।
वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत अपने एक लेख में बताते हैं कि चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट को माना जाता है लेकिन इसकी बुनियाद जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख कॉमरेड गोविंद सिंह रावत थे। वे लिखते हैं कि क्षेत्र विकास समिति के निर्वाचित प्रमुख होने के नाते गोविंद सिंह भारत-तिब्बत सीमा से लगे इस सीमान्त क्षेत्र में जबरदस्त पकड़ थी। एक साल पहले ही अप्रैल 1973 में श्रीनगर में आयोजित एक गोष्ठी के दौरान चंडी प्रसाद भट्ट ने गोविंद सिंह रावत को बताया था कि रैणी का जंगल सरकार ने 4 लाख रूपये में बेच दिया है।
इसके बाद गोविन्दसिंह रावत द्वारा अक्तूबर 1973 में पीले कागज पर लाल अक्षरों में रेणी क्षेत्र में होने जा रहे वन कटान के खिलाफ एक बहुचर्चित पर्चा क्षेत्र में बंटवा दिया। पर्चे का शीर्षक ‘‘ चिपको आन्दोलन का शुभारंभ’’ था, और उप शीर्षक था, ‘‘आ गया है लाल निशान, लूटने वालो सावधान, वन व धरती बढ़ कर रहेगी, भूखी जनता चुप नहीं रहेगी’’। इस पर्चे में 12 मार्च 1974 को जोशीमठ में ‘‘चिपको आन्दोलन ’’ शुरू करने की घोषणा की गई थी। पर्चे में निवेदक स्वयं गोविन्द सिंह रावत थे जबकि विनीत में रामसिंह राण और बचन सिंह डंगरिया सहित जोशीमठ के समस्त ग्राम प्रधान लिखा गया था। इससे जाहिर है कि रेणी में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपक कर कर पेड़ बचाने से पहले ही 12 मार्च को गोविन्द सिंह रावत ने चिपको आन्दोलन शुरू कर दिया था।
रैणी गांव में लगातार पर्यावरणविद पहुंचने लगे और ग्रामीणों को जंगल कटने से रोकने के लिए लामबंद करने लगे। 26 मार्च को रैणी गांव के समीप जंगलों में वन विभाग के कर्मचारियों के साथ ही पेड़ काटने के औजारों के साथ श्रमिकों की टोली जाती दिखी तो गांव की गौरा देवी ने गांव की अन्य महिलाओं को एकत्र कर अपने साथ लेकर जंगल में उस जगह पहुंच गई जहां पेड़ों की कटाई शुरू होनी थी। गौरा देवी समेत 27 महिलाएं उन पेड़ों से लिपट गई जिन पर काटने के लिए निशान लगाए गए थे। विरोध का यह अनोखा तरीका था। वन कर्मियों ने महिलाओं को चेतावनी दी लेकिन महिलाएं ठस से मस न हुई। महिलाओं का साफ कहना था कि पहले हमें काटो फिर पेड़ काटना। महिलाओं की जिद के सामने वन विभाग और ठेकेदार आखिरकार झुक गये और गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने अपने जंगल को बचा दिया।
रैणी के गांव में चिपको आंदोलन के सफल प्रयास की खबर पूरे देश में फैल गई। जगह जगह जंगल बचाने के लिए स्थानीय लोगों ने चिपको आंदोलन श्ुरू किए। गौरा देवी के लिए यह जंगल सिर्फ पेड़ों का झुंड भर नहीं था। 22 साल की उम्र में विधवा होने वाली गौरा देवी के लिए यह जंगल उसके सुख दुख के साथी थे। खाना पकाने के लिए जलावन से लेकर मवेशियों के लिए चारा सब कुछ जुटाने के लिए गांव की अन्य महिलाओं की तरह ही गौरा देवी का ज्यादातर वक्त भी इसी जंगल में बीतता। आखिरकार उन्होंने अपने साहस के दम पर रैणी का यह जंगल कटने से बचा लिया।

पहला चिपको राजस्थान में
26 मार्च 1974 को चमोली जिले की सीमांत गांव रेणी में चिपको आंदोलन को भले ही पर्यावरण संरक्षण के लिए देश दुनिया में खूब प्रसिद्धि मिली हो लेकिन इस आंदोलन से करीब ढाई सौ साल पहले राजस्थान में भी सैकड़ों लोगों ने पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उन पर लिपट कर विरोध जताया। साल 1730 में राजस्थान के खेजड़ली गांव की अमृता देवी ने विश्नोई समाज की महिलाओं के साथ पेड़ों से चिपक कर जंगल के कटान रोकने की कोशिश की। जंगलों की रक्षा करने की कीमत उन्हें अपनी व अपने साथ 363 लोगों की जान देकर चुकानी पड़ी।

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