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दस्तावेज: गढ़वाल में 1803 के भूकंप की तबाही का दुनिया को कैसे पता चला ?

Pen Point, Dehradun : भू गर्भीय हलचलों के लिहाज से हिमालय बेहद संवेदनशील माना जाता है। यही वजह है कि यहां जब भी धरती डोलती है तो लोग सहम जाते हैं। ऐसी घटनाओं में 1803 के भूकंप को सबसे भीषण माना जाता है। कहा जाता है कि तब जान माल के भारी नुकसान के साथ ही कई हिस्सों का भूगोल बदल गया था। कई जगह पहाड़ दरकर गिर गए थे और नदियों का रूख बदल गया था। लेकिन उस वक्त आज की तरह संचार व्यवस्था नहीं थी। इसलिये इस भूकंप की जानकारी अलग अलग हिस्सों में कई सालों तक बाहर की दुनिया के सामने आई। उसके लंबे समय बाद इस भूकंप समेत हिमालय की संवेदनशील प्रकृति के अध्ययन शुरू हुए। 1803 की उस त्रासदी की जानकारी देने वाले शुरूआती दस्तावेजों में उपलब्ध जानकारियों से इसकी भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। खास तौर पर ब्रिटिश खोजी दलों की ओर से उपलब्ध कराई गई सूचनाएं ही इस भूकंप के बारे में काफी कुछ बताती हैं।

लॉरेन्स डी कैम्पबेल- 1806 में प्रकाशित हुए एसियाटिक एनुअल रजिस्टर में वॉयलेंट अर्थक्वेक शीर्षक से कैम्पबेल ने 1803 भूकंप का उल्लेख किया गया है। जिसके मुातबिक 1 सितंबर बृहस्पतिवार को तड़के कलकत्ता और इसके आसपास भूकंप का तेज झटका महसूस हुआ और बॉटेनिक गार्डन में पानी के टैंकों से पानी मछलियों समेत उछल कर बाहर निकल गया, झटका खाने से चर्च की घड़ी भी बंद हो गई। इसी रजिस्टर में ड्रेडफुल अर्थक्वेक शीर्षक से एक और रिपोर्ट मथुरा से है, जिसमें बताया गया है कि उस रात को महसूस हुआ तेज भूकंप का झटका कई मिनटों तक रहा, जो किसी भी आदमी को बेसुध करने के लिये काफी था। कई पक्की इमारतें जमींदोज हो गई, डर से बेहाल लोग अंधेरे में ही सड़कों और खुली जगहों की शरण लेने लगे।

एफ. वी. रैपर, 1812- एफ.वी. रैपर ने गंगा के स्रोत की खोज में 1808 में हरिद्वार (हरिद्वार) से गंगोत्री तक सर्वे किया था। यह विवरण एशियाटिक रिसर्च 1812 में प्रकाशित हुआ था। जिसके अनुसार 1808 के अप्रैल महीने की 23 तारीख को उनके दल ने ने बाड़ाहाट शहर (उत्तराकाशी) में प्रवेश किया। रैपर बताते हैं कि यह नगर किसी भी तरह से हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। इसका गठन, विस्तार और जनसंख्या हमारे द्वारा अब तक पास किए गए कई गांवों से बहुत कम था। देश के इस हिस्से के सभी गांवों की तरह घर बड़े पत्थरों से बने हैं। सभी में स्लेटयुक्त छतें हैं लेकिन उनमें से कोई भी रहने योग्य स्थिति में नहीं दिखता। यह स्थिति 1803 के भूकंप से हुई चोट से उत्पन्न हुई है। जिसकी जद में सभी घर आए। जिनमें से कुछ की छतें गिर गई और कुछ पूरी तरह जमीन में दफन हो गए थे। कहते हैं, दो-तीन सौ छतों के गिरने से लोग मारे गये; और उस पर बड़ी संख्या में मवेशी नष्ट हो गए। अब कुछ बस्तियों का पुनर्निर्माण किया गया हैं लेकिन जो बचे हैं वे बहुत बिखरे हुए है, कुल मिलाकर यह यह स्थान बर्बादी और उजाड़ की तस्वीर प्रदर्शित करता है।

यही सर्वे दल जब मई 1808 में देवप्रयाग पहुंचा तो उसने यहां भी भूकंप के निशान देखे। जिसका जिक्र इस तरह किया गया है- देवप्रयाग शहर 1803 के भूकंप से बुरी तरह हिल गया था। कई निजी घर, जिनमें मंदिर की छत और गुंबद भी शामिल हैं (रघुनाथ या रामचन्द्र) के कई हिस्से टूट गए। इस उत्तरार्द्ध की हाल ही में हाथों से मरम्मत की गई है। दौलत राव सिंधिया ने अपने गुरु या उच्च पुजारी की देखरेख के लिये भेजे गए ब्राह्मण इस काम में लगे हैं। उनका उद्देश्य इसके जीर्ण-शीर्ण स्वरूप को बहाल करना है।

ले.वेब- 1808 में रेपर के दल में शामिल ले.वेब ने हरिद्वार से बद्रीनाथ तक सर्वे किया था। उसने अपनी रिपोर्ट में में श्रीनगर का जिक्र किया है। जिसके मुताबिक अलकनंदा के किनारे घाटी में स्थित श्रीनगर 1803 से पहले एक संपन्न नगर था। लेकिन 1803 के भूकंप ने यहां हर इमारत को हिला दिया है। उसी वर्ष के अंत में गोरखाली आक्रमण ने इस शहर को गरीबी और बरबादी की ओर धकेल दिया है। लगता है कि इस नगर ने सबसे ज्यादा झटका महसूस किया है। मुख्य सड़क पर, पांच मकान बचे हैं जिनमें कोई भी नहीं रहता है; कुछ की छतें गिर गई हैं जबकि अन्य घरों की दीवारें टूटी हुई हैं, कई खंडहरोंढेर पड़े हैं। राजा का महल भी बिल्कुल वैसी ही स्थिति में है। इसके कुछ हिस्से पूरी तरह से नष्ट हो गए हैं, और अन्य इतने डगमगा गए हैं कि कभी भी ध्वस्त हो सकते हैं। ऐसी स्थिति, जिससे इसकी दीवारों के नीचे से गुजरना असुरक्षित हो जाता है। बहुत से स्थानीय निवासी, जो हमारे साथ उपस्थित हुए। इन घटनाओं पर काफी दुख व्यक्त किया। वेब ने अपने सफर के दौरान कर्णप्रयाग और अन्य जगहों पर भी भूकंप के असर का उल्लेख किया है।

कैप्टेन हॉडसन 1822- मार्च-अप्रैल 1817 में कैप्टन हॉजसन ने टोन्स और यमुना नदी के जंक्शन से यमुना घाटी की यात्रा की। बैराट- मुरलंग- कोठा- लाखा मंडल-भंकोली-पौंटी आदि स्थानों से होते हुए गिरा- थान- कुतनौर- पाली- ओजा गढ़- राना- बनासा- खरसाली और यमुनोत्री तक उसने सर्वे किया। 1822 में प्रकाशित रिपोर्ट में उसने उल्लेख किया है कि थान से आगे जमुना घाटी में बड़ा गाव पाली से ओझा गढ़ तक पहुंचे। जहां केवल तीन झोपड़ियां हैं। खड़ी और ऊँची चट्टानों के बीच यहां 1803 के भूकंप में एक छोटा सा किला और गांव दब गया, इन पहाड़ों ने इस प्रलय को देखा यह उसका एक भयानक स्मृति चिन्ह है।

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