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जनसंघ से भाजपा : आरएसएस को साथ रखने की जिद से बनी भाजपा

– जनता पार्टी के दोहरी सदस्यता को खत्म करने के फैसले ने रखी भाजपा की नींव
देश और दुनिया में करीब 18 करोड़ से अधिक कार्यकर्ताओं के साथ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाली और केंद्र में पिछले नौ सालों से सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी आज अपना 43वां स्थापना दिवस मना रही है। जनसंघ के रूप में 1951 में दो सांसदों के साथ शुरू हुई भाजपा आज 302 लोक सभा सांसदों के साथ, 1420 विधायकों के साथ 16 सालों में सरकार चला रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक स्वरूप भाजपा की शुरूआत 1951 में जन संघ के रूप में हुई तो आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी के साथ शामिल होकर फिर तीन सालों में ही जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी बनने तक की कहानी संघ के प्रति भाजपा नेताओं के समर्पण की भी कहानी है।

1977 में आपातकाल के बाद हुए पहले लोकसभा चु'Pen Pointनाव में जनता पार्टी की गठबंधन वाली सरकार ने बहुमत का आंकड़ा छू लिया। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा गठित जनसंघ भी जनता पार्टी का हिस्सा हो चुका था और चुनाव में सर्वाधिक 93 सीटें जीती लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश नहीं की। अगले तीन सा'Pen Pointल जनता दल के आपस में लड़ते झगड़ते हुए बीते। 1980 में आम चुनाव की घोषणा हुई। जनवरी 1980 को आम चुनाव होने वाले थे। चरण सिंह के जाने और मोरारजी देसाई के उपलब्ध नहीं होने की वजह से जनसंघ ने फिर जगजीवन राम को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर चुनावी मैदान में ताल ठोकी। जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली से चुनावी ताल ठोकी।

चुनाव प्रचार के दौरान इंदिरा गांधी नये उत्साह के साथ कमजोर हो चुकी जनता पार्टी पर हमले कर रही थी। आपातकाल के बाद यह माना जाता रहा था कि इंदिरा गांधी कभी राजनीति में वापसी नहीं पाएंगी। लेकिन, इंदिरा गांधी को राजनीति से दूर हुए सिर्फ दो ही साल हुए थे और वह अभी भी जनता के मिजाज को जानती थी। जनता पार्टी की सरकार द्वारा सताए जाने से इंदिरा गांधी ने खुद को शहीद के रूप में पेश किया। जनता पार्टी में सिर फुटोव्वल मची थी। परिणाम घोषित हुए तो कांग्रेस ने 520 में से 362 सीटें जीत ली। जनता पार्टी 32 सीटों पर सिमट गई तो 1977 में 93 सीटें जीतने वाली जनसंघ 16 सीटों पर आ गई।
जनता पार्टी की हार के बाद गठबंधन के भीतर रार मच गई। जगजीवन राम ने पत्र लिखकर हार के लिए जनसंघ को जिम्मेदार ठहराया। जनता पार्टी ने दोहरी सदस्यता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। जनता पार्टी ने निर्णय लिया कि जनसंघ के नेता आरएसएस के सदस्य नहीं रह सकते। जनसंघ ने इसे आभासी निष्कासन माना और आरएसएस छोड़ने की बजाए जनता पार्टी छोड़ने का फैसला लिया।
इस फैसले के अगले दिन यानि 5 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में जनसंघ ने एक बैठक की। इस दौरान जनसंघ के स्थान पर एक नए दल की घोषणा की गई। लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि अब जनसंघ की बजाए नए दल का गठन किया जाएगा। अगले दिन यानि 6 अप्रैल 1980 को नई पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण में घोषणा की कि जनता पार्टी की नीतियों और उसके कार्यक्रमों में कोई खामी नहीं थी। असल में लोगों ने राजनेताओं के व्यवहार के खिलाफ वोट दिया था। पार्टी के एजेंडा और प्रतीक की घोषणा बाद में होनी थी लेकिन 6 अप्रैल 1980 को बैठक खत्म होने से पहले पार्टी के नाम की घोषणा की गई।

फिर से जनसंघ नाम अपनाने की बजाए नई पार्टी खुद को जनता पार्टी का उत्तराधिकारी बताना चाहती थी। इसे नाम दिया गया भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा। वाजपेयी और आडवाणी द्वारा आरएसएस को छोड़ने की बजाए नई पार्टी का गठन करने के निर्णय से संघ ने उनका आभार जताया। संघ ने भी माना कि नए दल का निर्माण किया गया तो जनसंघ नाम फिर से रखना सही नहीं रहता ऐसे में नई पहचान के साथ नई शुरूआत करना जरूरी है। संघ ने आडवाणी वाजपेयी के जनता पार्टी की बजाए आरएसएस के लिए समर्पित होकर जनता पार्टी ने नाता तोड़ने को सराहा।

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