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कांजल का पेड़: जिसकी पवित्रता ही बन गई उसके लिए श्राप

– हिमालयी क्षेत्रों में 6 हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर उगने वाले कांजल पेड़ से बने कटोरों में खाना और पानी पीने को बौद्ध भिक्षु मानते हैं पवित्र, चीन और नेपाल में है भारी मांग
PEN POINT, DEHRADUN : उत्तराखंड समेत हिमालयी क्षेत्र में समुद्रतल से 6 हजार फीट से अधिक की ऊंचाई उगने वाला बीस से तीस फीट ऊंचा एक पेड़। दिखने में सामान्य से इस पेड़ की बौद्ध धर्म में काफी महत्ता है। स्थानीय बोलियों में कांजल, काजल, कांजोल नाम से जाना जाने वाला हिमालयन मेपल का यह पेड़ बौद्ध धर्म में बेहद पवित्र माना जाता है। बौद्ध किवंदतियों के अनुसार गौतम बुद्ध को यह पेड़ बेहद प्रिय था। इस पेड़ का वानस्पतिक नाम ऐसर सिजियम है। बेहद खूबसूरत यह पेड़ गौतम बुद्ध को प्रिय था तो इससे बने कटोरे बौद्ध धर्म में बेहद प्रवित्र माने जाते हैं। गौतम बुद्ध का पसंदीदा पेड़ जो बौद्ध धर्म के लिए पवित्र वृक्ष बन गया अब यही पवित्रता इसके वजूद के लिए खतरा बन गई है। इस पेड़ से बने कटोरों को बौद्ध धर्म में पवित्र माना जाता है। लेकिन इस खूबसूरत पेड़ की पवित्रता ही इसके लिए श्राप बन गई है।
कांजल के पेड़ की हरी पत्तियां जब पतझड़ में पीलापन ओढ़कर गिरनी शुरू होती है तो अमूमन सदाबहार रहने वाले हिमालयी वनों की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है। इस पेड़ की सूखी पत्तियों को एकत्र कर ग्रामीण सर्दियों में मवेशियों के नीचे बिछावन के रूप में इसे प्रयोग करते हैं जिससे बना गोबर खेती की सेहत सुधारता है। स्थानीय ग्रामीणों के लिए यह पेड़ बड़ा आम सा पे़ड़ है जिसके सूखने पर जलावन लकड़ियों के रूप में ग्रामीण लंबे समय से इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन अब जब इसकी तस्करी की खबरें हर सर्दियों के दौरान अखबारों की सुर्खियां बनने लगी है तो हिमालयी क्षेत्रों के ग्रामीण इस बात से रूबरू हुए कि बड़ा सामान्य सा दिखने वाला यह पेड़ कितना बेशमकीमती है। इस पेड़ की कीमत का अंदाजा इस बात से लगाइए कि इसका एक छह इंच चौड़ा और मोटा टुकड़ा औसतन 10 हजार रूपए की कीमत में बिकता है। इसके टुकड़ों से बनने वाले कटोरे बौद्ध भिक्षुओं के लिए पवित्रता का प्रतीक है। कांजल की लकड़ी से बने कटोरों में खाना खाना और पानी पीना बौद्ध भिक्षुओं के लिए पवित्र माना जाता है लिहाजा इस पेड़ की पवित्रता ही अब इसके लिए वजूद के लिए मुसीबत बन गया है।

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उत्तरकाशी जनपद के एक गांव के जंगल में कांजल तस्करों द्वारा काटे गए कांजल के हरे पेड़। इन पेड़ों के टुकड़ों की तस्करी सहारनपुर तक की जाती है जहां से उन्हें कटोरों का रूप देकर चीन और नेपाल में भेजा जाता है।

बीती 4 जनवरी को उत्तरकाशी जनपद मुख्यालय से तीन किमी पहले ही गंगोरी के पास वन विभाग और पुलिस ने एक कार से हिमालयी क्षेत्र में उगने वाले एक पेड़ के 200 टुकड़े बरामद किए। अगले दिन रूद्रप्रयाग के जखोली में पुलिस ने चार तस्करों को कांजल पेड़ के 202 टुकड़ों के साथ गिरफ्तार किया। लगातार दो दिनों तक अलग अलग जगहों से बरामद लकड़ी के इन टुकड़ों की कीमत करीब 40 से 50 लाख रूपए बताई जा रही है। आखिर, कौन सी घेंघानुमा लकड़ी के टुकड़े हैं जिनके 6 इंच मोटे और चौड़े हर टुकड़े की कीमत 10 हजार रूपए से ज्यादा है। राज्य के अलग अलग हिस्सों में लगातार दो दिन बरामद यह 400 से ज्यादा लकड़ी के टुकड़े असल में कांजल के पेड़ के टुकड़े थे। समुद्रतल से 7 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर उगने वाले कांजल पेड़ के तने पर उगने वाले घेंघे नुमा इन लकड़ियों के टुकड़ों की इस ऊंची कीमत की वजह बौद्ध धर्म से जुड़ी इनकी पवित्रता से है। बौद्ध धर्म में इस लकड़ी से बने उत्पाद की पवित्रता ही कांजल के पेड़ के अस्तित्व के लिए खतरा बनकर मंडरा रहा है। उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में इन दिनों लंबे समय से बर्फवारी नहीं हुई है। जिन इलाकों में अमूमन इन दिनों बर्फ की मोटी चादर बिछी होनी थी वहां लंबे समय से सूखा पसरा हुआ है।

लिहाजा, कांजल के पेड़ों से इन घेंघानुमा लकड़ी के टुकड़ों को निकालकर उनकी तस्करी करने वालों के लिए यह आदर्श समय है। यह पहली बार नहीं है जब पुलिस के हाथों कांजल के लकड़ियों की तस्करी का इतना बड़ा जखीरा हाथ लगा है। साल 2022 के दिसंबर महीने में जब बर्फ नहीं गिरी और जंगलों में सूखा पसरा था तब भी कांजल के पेड़ के इन हिस्सों की तस्करी खूब हो रही थी, उत्तरकाशी पुलिस ने 28 दिसंबर 2022 को 144 कांजल की लकड़ी के टुकड़ों के साथ तीन तस्कर गिरफ्तार किए थे।

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पुलिस द्वारा बरामद किए गए कांजल के पेड़ को काटकर बनाए गए टुकड़े, इन्हें ही कटोरों की शक्ल दी जाती है।

उत्तराखंड के ऊंचाई वाले इलाकों से तस्करी कर इन टुकड़ों को सहारनपुर पहुंचाया जाता है जहां इन टुकड़ों को कटोरों का आकार दिया जाता है फिर कांजल के इन कटोरों को नेपाल के रास्ते चीन और बौद्ध धर्म के अनुयाई अन्य देशों तक पहुंचाया जाता है। कीमत के लिहाज से एक कटोरे की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक लाख रूपए तक हो सकती है।
उत्तरकाशी जिले में टकनौर क्षेत्र के एक गांव के ग्रामीण बताते हैं कि बीते साल जब वह फरवरी महीने के किसी दिन जंगल में जलावन लकड़ियों की तलाश में घूम रहे थे तो उन्होंने जंगल के बीचों एक नीले तिरपाल से बना अस्थाई टेंट देखा जहां कांजल की लकड़ी के टुकड़ों के साथ ही पेड़ काटने के आधुनिक हथियार भी रखे थे। हथियारों को देख वह वहां से भाग गए तो अगले दिन गांव के कुछ अन्य लोगों को लेकर फिर वहां पहुंचे तो देखा वहां से तस्कर सारा सामान लेकर गायब थे लेकिन आस पास कई कांजल के हरे पेड़ काट कर गिराए गए थे।

वन विभाग की माने तो जिस सर्दियों में बर्फवारी नहीं होती है वह सर्दियां इन तस्करों के लिए मुफीद साबित होती है और कांजल के पेड़ घने जंगलों के बीच में उगते है लिहाजा वन विभाग के लिए हर दिन पेट्रोलिंग करना भी आसान नहीं है क्योंकि वह तस्कर कुछ ही घंटों में पेड़ काटकर अपना ठिकाना बदल लेते हैं।

आमतौर पर पेड़ के तने पर उग आए घेंघेनुमा हिस्से को ही कटोरे बनाने के लिए मुफीद माना जाता है लेकिन मोटे लालच के चक्कर में तस्कर पूरा पेड़ काटकर तने के टुकड़े बनाकर उन्हें इस तरह से काटते हैं जैसे वह तने पर उग आए घेंघे नुमा आकृति ही लगे और उनसे कटोरे बनाने में आसानी हो।

बीते तीन से चार सालों से दिसंबर जनवरी महीने में बर्फवारी न होने से कांजल की लकड़ी के तस्करों के लिए यह समय कांजल के पेड़ों को काटकर उसके टुकड़े बनाकर तस्करी के लिए मुफीद बना हुआ है। बीते तीन सालों में ही दिसंबर महीने के दौरान ही वन विभाग और पुलिस विभाग ने लाखों रूपए की कीमत के कांजल पेड़ के टुकड़ों को तस्करों से बरामद किया है।

 

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