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खुशवंत सिंह : कभी मौत से डरने वाला लेखक, जो मौत का इंतजार करते हुए लंबी जिंदगी जी गया

– आज मशहूर लेखक पत्रकार संपादक पूर्व राजनियक खुशवंत सिंह की पुण्यतिथि, 99 वर्ष की आयु में 2014 में हुआ था निधन
PEN POINT, DEHRADUN :  इन दिनों खलिस्तान बनाने की मांग को लेकर भारत से लेकर इंग्लैंड, अस्ट्रेलिया तक में सिक्खों के अलगाववादी संगठन प्रदर्शन कर रहे हैं। इस देश ने अलग खलिस्तान की मांग को लेकर हिंसा का एक बेहद हिंसक और काला दौर देखा था। 80 के दशक में पंजाब खलिस्तान की मांग को लेकर सुलगने लगा था।  जहां सिक्खों की बड़ी आबादी अलग खलिस्तान की मांग कर रहे भिंडरेवाले को नैतिक समर्थन दिए हुए थे वहीं एक मशहूर लेखक, तब के राज्यसभा सांसद व पूर्व में विदेश सेवा के अधिकारी रहे खुशवंत सिंह खालिस्तान आंदोलन के अगुवा जनरेल सिंह भिंडरावाला की तीखी आलोचना किया करते थे और खालिस्तान के विचार को ही सिरे से खारिज किया करते थे। लेकिन, जब भिंडरेवाला का खात्मा करने के लिए केंद्र सरकार ने स्वर्ण मंदिर पर चढ़ाई की तो गुरू ग्रंथ साहेब के अपमान के विरोध में खुशवंत सिंह ने अपना पद्मविभूषण सरकार को लौटा दिया।
अपने जमाने के मशहूर लेखक, पत्रकार रहे खुशवंत सिंह की आज पुण्यतिथि है। एक भरपूर लंबी जिंदगी जीने के बाद आज के ही दिन 99 साल की उम्र में 20 मार्च 2014 को खुशवंत सिंह का निधन हो गया था। बेहद अमीरी और विलासता भरा जीवन जीने वाले खुशवंत सिंह अपने बारे में एक मजेदार किस्सा सुनाते हैं। 2005 में लिखी अपनी किताब ‘डेथ ऑन माई डूअरस्टेप‘ में खुशवंत सिंह लिखते हैं कि ‘मैं मौत के बारे में सोचकर भी बहुत डरता था, मैं सोचता था कि आखिर यह जिंदगी खत्म हो जाएगी तो फिर क्या’। वह लिखते हैं कि मौत के बारे में सोचने से ही वह घबरा उठते थे। एक बार उन्होंने अपनी इस घबराहट के बारे में तब के मशहूर रहे ‘ओशो’ को बताया। ओशो ने उन्हें एक अचूक मंत्र दिया। ओशो ने कहा कि अब कोशिश करो कि किसी की खुशी में शामिल न हो सको लेकिन जब कोई परिचित का परलोक सिधारे तो उसकी आखिरी यात्रा में जरूर शामिल होना और उसके अंतिम संस्कार के पूरे होने तक वहीं श्मशान पर ही डटे रहना। खुशवंत सिंह ने पूछा इससे होगा क्या तो ओशो ने जवाब दिया कि तुम्हें समय के साथ सब मालूम पड़ जाएगा।
खैर, खुशवंत सिंह ने यह नियम बना लिया कि अब जब भी कोई जान पहचान में स्वर्ग सिधारता तो वह उसकी अंतिम यात्रा में शामिल होकर उसके अंतिम संस्कार के निपटने तक श्मशान पर डटे रहते और जब तक अमुक शव पूरी तरह से राख में तब्दील न हो जाता वह श्मशान से हटते नहीं। धीरे धीरे यह उनके जीवन का हिस्सा बन गया। किताब में वह लिखते हैं कि उसके बाद मौत को लेकर जो उनमें डर था वह गायब हो गया क्योंकि उन्होंने कई दोस्तों, परिचितों को राख बनते देखा था और वह समझ गए थे कि यही नियति है और यही जिंदगी की आखिरी सच्चाई थी। खुशवंत सिंह लिखते हैं कि आखिरकार उन्होंने तब से लोगों के जन्मदिन, सालगिरह जैसे खुशियों के मौके पर जाना तो छोड़ दिया लेकिन किसी की अंतिम यात्रा को कभी नहीं छोड़ा। इसका असर यह हुआ कि वह अक्सर शनिवार को प्रकाशित होने वाले अपने लेखों में लिखा करते थे कि वह अब मौत के लिए तैयार है। मौत को लेकर उन्होंने एक पूरी किताब लिखी जिसमें उन्होंने हर किसी को हर वक्त मौत के लिए तैयार रहने को कहा।
खुशवंत सिंह 99 साल की आयु तक लिखते रहे। उन्होंने करीब 80 किताबें लिखी, कई प्रतिष्ठित अखबारों का संपादन किया।

धर्म से दूरी बना दी थी
खुशवंत सिंह ने अपने करियर की शुरुआत में ही धर्म से दूरी बना ली थी. लेकिन उन्हें सिख धार्मिक संगीत, सबद और कीर्तन सुनने का बहुत शौक था। एक बार उन्होंने कहा था कि वो सिख धर्म के बाहरी प्रतीकों को इसलिए धारण करते हैं क्योंकि इससे उनमें उससे जुड़ा होने का भाव आता है। धर्म में आस्था न होने के बावजूद उन्होंने सिखों का इतना प्रमाणिक इतिहास लिखा जिसकी मिसाल आज तक नहीं मिलती. ’हिस्ट्री ऑफ़ सिख’ लिखने के बाद उन्होंने उसका अंत लैटिन के दो शब्दों से किया जिसका मतलब था, “मेरे जीवन का काम पूरा हुआ।

जीवन परिचय
खुशवंत सिंह का जन्म 2 फरवरी, 1915 को पाकिस्तान पंजाब के खुशाब के हदाली जिले में हुआ था। उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज (दिल्ली) और किंग्स कॉलेज (लंदन) में अध्ययन किय। वह एक प्रबल राजनीतिक आलोचक रहे और 1980 से 1986 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।
खुशवंत सिंह की एक खास बात ये भी रही कि वो जितने लोकप्रिय भारत में थे उतने ही पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी थे। सिंह की किताब ’ट्रेन टू पाकिस्तान’  बेहद लोकप्रिय हुई, इस बुक पर फिल्म भी बन चुकी है। खुशवंत को अपने जीवन में तमाम पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण ने भी नवाजा गया।

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