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तीलू रौतेली: जब कत्यूरियों पर कहर बन टूट पड़ी 15 साल की वीर बाला

– पिता, भाईयों और मंगेतर के युद्धक्षेत्र में वीरगति के बाद खुद संभाली युद्ध की कमान, सात सालों में दुश्मनों से 13 किले करवाए मुक्त
PEN POINT, DEHRADUN : तीलू रौतेली, इस नाम से पहाड़ का शायद ही कोई बाशिंदा परिचित न हो। अक्सर इन्हें पहाड़ की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है। लेकिन, इन्हें रानी लक्ष्मीबाई कहना इसलिए भी उचित नहीं होगा क्योंकि जब रानी लक्ष्मीबाई 1857 के गदर में अंग्रेजी सेना पर कहर बनकर टूट पड़ी थी तो उससे ठीक कुछ 200 साल पहले तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। जब रानी लक्ष्मीबाई ने युद्धक्षेत्र में अपना पराक्रम दिखाकर भारतीय वीर नारी की वह छवि पेश की जो दुनिया और आने वाली नस्लों के लिए मिसाल बन गई तो उससे दो सदी पहले एक 15 साल की वीर बाला ने युद्ध क्षेत्र में अपने पिता, भाईयों और मंगेतर को गंवाने के बाद युद्ध की कमान अपने हाथों में लकर अगले सात सालों तक दुश्मनों पर कहर बन कर टूटी। दुश्मनों के लिए जब इस वीर बाला को युद्ध क्षेत्र में हराना मुश्किल हो गया तो उन्होंने धोखे का सहारा लेकर तीलू रौतेली को कत्ल कर दिया। महज 22 साल की उम्र पाने वाली तीलू रौतेली यूं तो पूरी दुनिया में वीर महिलाओं की प्रेरणा बनने के काबिल थी लेकिन उनकी कहानी पहाड़ों की घाटियों में ही दबकर रह गई।
आज के ही दिन साल 1661 में पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट स्थित ग्राम गुराड़ में तिलोत्तमा देवी का जन्म हुआ था। पिता का नाम भूप सिंह रावत और मां मैणावती रानी थी। भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतेहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे। 15 वर्ष की उम्र में ईडा, चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ धूमधाम से तीलू की सगाई कर दी गई। अपनी उम्र की लड़कियों से उलट तीलू ने 15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियालघुड़सवारी और तलवार बाजी की बारीकियां सीख ली। वह दौर था जब गढ़ नरेश और कत्यूरी शासक एक दूसरे के खिलाफ लगातार युद्ध छेड़े हुए थे। कत्यूरी शासकों की नजर गढ़ राज्य पर थी। कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह ने खैरागढ़ की रक्षा की जिम्मेदारी तिलू के पिता भूप सिंह को सौंप कर खुद चांदपुर गढ़ी रवाना हो गया। कत्यूरी सेना से युद्ध के दौरान भूप सिंह ने डटकर मुकाबला किया। कत्यूरी सेना अपनी क्रूरता के लिए जानी जाती थी, खैरागढ़ की रक्षा करते हुए भूप सिंह के साथ ही उसके दोनों बेटे और तीलू का मंगेतर भी इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
पिता, दोनों भाईयों और मंगेतर जब वीरगति को प्राप्त हुए तो तब तीलू यानि तिलोत्तमा की उम्र कुल 15 साल थी। कत्यूरियों को रोकने की कमान अब खुद तीलू ने अपने हाथ में ले ली। तीलू ने अपने मामा रामू भंडारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल व सहेलियों देवकी और बेलू के साथ मिलकर एक सेना बनाई। इस सेना के सेनापति महाराष्ट्र से छत्रपति शिवाजी के सेनानायक श्री गुरु गौरीनाथ थे। उनके मार्गदर्शन से गढ़ राज्य के हजारों युवकों ने प्रशिक्षण लेकर छापामार युद्ध कौशल सीखा। 15 साल की तीलू अपनी सहेलियों देवकी व वेलू के साथ मिलकर दुश्मनों से लोहा लेने के लिए युद्ध मैदान में कूद गई। तीलू रौतेली ने अगले सात सालों तक कत्यूरियों के कब्जे से खैरागढ, टकौलीगढ़, इंडियाकोट भौनखाल, उमरागढी, सल्टमहादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफराईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ, भलंगभौण व चौखुटिया सहित 13किलों पर जीत हासिल की। कत्यूरियों के लिए तीलू रौतेली और उसकी छापामार युद्ध में दक्ष सेना से युद्ध मैदान में लोहा लेना आसान नहीं था। लगातार होती हार से कत्यूरी बुरी तरह से बौखला गए थे। उनके लिए तीलू रौतेली को हराना मुश्किल था तो उन्हांेने छल का सहारा लेकर उसकी इस विजययात्रा को रोकने की योजना बनानी शुरू कर दी।
कत्यूरियों को यह मौका जल्द हाथ भी लग गया। 15 मई 1683 को विजयोल्लास में तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को तट (नयार नदी) पर रखकर नदी में नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया।

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