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क्यों खास हैं उत्तराखण्ड का यह मेला ? धर्म-संस्कृति के साथ स्वतंत्रता की लड़ाई व राज्य आन्दोलन का केंद्र रहा

Pen Point, Dehradun : उत्तराखण्ड यानी गढ़- कुमौं और जौनसार भाषाई और सांस्कृतिक नजरिए से विविधता लिए हुए एक पहाड़ी प्रदेश के तौर पर जाना जाता है। भौगोलिक तौर पर इसका करीब 20 फ़ीसदी हिस्सा मैदानों में भी फैला है। आबादी के तौर पर राज्य की बड़ी आबादी अब इसी मैदानी क्षेत्र में निवासरत है। लेकिन बावजूद इसके इस प्रदेश की अपनी विविधता लिए हुई सांस्कृतिक पहचान अपने आप में बेहद अनूठी है। यहाँ हर साल अलग अलग मौसम तमाम तरह के तीज त्यौहार मनाये जाने की सैकड़ों साल पुरानी परम्पराएं हैं। जिनमें यहाँ के कौथीग, थौळ, कौतिक यानी मेले बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उत्तराखण्ड में लगने वाले के मेलों में ही यहाँ की सांस्कृतिक छटा देखने को मिलती है। जिसमें स्थानीय लोगों की तरफ से धर्म, संस्कृति और कला का शानदार सामंजस्य का अद्भुत कलात्मक नजारा पेश किया जाता है।

आज हम बात कर रहे हैं उत्तराखण्ड में इन दिनों चल रहे एक बेहद विख्यात ऐसे ही मेले की। यह मेला या कौतिक है कुमाऊं मंडल के जनपद मुख्यालय बागेश्वर लगाने वाला उत्तरायणी मेला। यूं तो यह पूरा जिला ही अपने पर्वतीय प्राकृतिक सौन्दर्य, हिमानियों (ग्लेशियर), नदियों और मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन जनपद मुख्यालय में सरयू (सरज्यू) और गोमती नदियों के संगम पर स्थित एक बागेश्वर तीर्थ की अपनी ही बेहद पौराणिक पहचान है। यूँ तो मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के पावन मौके पर नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं, लेकिन तीर्थ बागेश्वर में हर साल आयोजित होने वाली उतरैणी कौतिक की रौनक ही कुछ अलग है।

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इस पवित्र तीर्थ बागेश्वर की मान्यता ‘तीर्थराज’ की है। मान्यता के मुताबिक भगवान शिव की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अलावा लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है। नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही यहाँ स्थानीय लोग बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समान मानते हैं।

पौराणिक मान्यताओं मुताबिक बागेश्वर शिव लीला स्थली है। इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार ‘दूसरी काशी’ के रुप में की और बाद में इस जगह को शिव-पार्वती ने अपना निवास स्थान बनाया। कहा जाता है कि देवो के देव महादेव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग पैदा हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में पूजा की।

स्कन्दपुराण के मुअतबिक मार्कण्डेय ॠषि ने यहाँ तपस्या की। इसके अलावा ऋषि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा। ॠषि की तपस्या भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशा से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को रास्ता दिलाया। कालान्तर में यही मान्यता व्याघ्रेश्वर से बागेश्वर बन गयी और इस पूरे इलाके का नाम भी बागेश्वर हो गया। जिसे आज जिले के रूप में जाना और मना जाता है।

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हर साल लगने वाले इस मेले का महत्व उतरैणी के रूप में सामने आता है। मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने से है। पहले यहाँ मकर स्नान एक महीने तक होता था। सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है। तब सरयू बगड़ के तट के दोनों ओर स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डाला करते थे। दूर-दराज के लोग कई दिन पहले स्नान और रिश्तेदारों से मिलने की इच्छा लिए पैदल चलना शुरू कर देते थे। पुराने लोग बताते हैं कि कई महीनों पहले से कौतिक में पहुंचें का सिलसिला शुरु होता जाता था। धीरे-धीरे ये मेला गीत संगीत के साथ आगे बढ़ने लगा। इसके बाद इसमें लोकगीत, नृत्य भी शामिल किए जाने लगे और मेले की रौनक बढ़ती चली गयी। अपनों से मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल मेले का अहम हिस्सा बन गए। इस तरह से दिन रात लगाने वाला यह मेला किस तरह से समां बाँध देता था।
जगह जगह अलाव जलाकर ठण्ड से बचने और उजाले की व्यवस्था की जाती थी। इस सर्द कंपा देने वाली रातों में झोड़े , चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्य के साथ लोग अलाव के चारों तरफ घूम घूम कर माहौल को खुशनुमा बना देते थे। यहाँ भी विविधता लिए नाचने-गाने का सिलसिला एक बार शुरु होता तो सुबह पौ पठने यानी सूर्योदय तक जारी रहता।

गौरलब है कि धीरे-धीरे समय के साथ इस मेले ने और विस्तार लिया और यह धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध होता चला गया। मनोरंजन और रिश्ते नातेदारों से मिलन के तौर पर स्थापित यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का मुख्या केन्द्र बन गया। यहाँ भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते। तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते। भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।

इस मेले का इतिहास आजादी की लड़ाई के साथ भी बहुत मजबूती के साथ जुड़ा हुआ है। यहाँ ब्रिटिश दौर में आजादी के दीवानों ने स्वराज की बात को आम जन तक पहुँचाने के लिए इस मिले का लाभ उठाया। बागेश्वर की उतरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयोग में लाई जाने लगी थी। सरयू के किनारे राजनैतिक हलचलों का केन्द्र बना। काँग्रेसी झंड़े लगते ही हलचल शुरू हो गयी। यहाँ झंडा लहराता देख लोगों के झुंड के झुंड जमा हो जाते। बैठकें होती, जुलूस निकलते, गाँव के गाँव इसमें शामिल होते। लोग खद्दर का कुर्त्ता-पायजामा, सफेद टोपी पहचान लिए यहाँ पहुंचते। ख़ास कर लोग विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे के तीखे भाषणों को सुनने यहाँ आते। यह मेला आजादी की लड़ाई को जन-जन, गाँव-गाँव तक ले जाने के लिए सबसे बेहतर मौक़ा होता था।

अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहाड़वासियों पर लादी थी। पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली नहीं मिलते थे। ऐसे में उन्होंने इस प्रथा शुरू की। जिसमें हर गाँव से बोझा ढोने के लिए कुलियों को पंजीकृत किया जाता था। ऐसे में लोगों को अपना सारा काम छोड़कर जाना अंग्अरेजो का बोझा धोने के लिए जरूरी तौर पर जाना होता था। किसी तरह की कोई रियायत नहीं थी।

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इसकी शुरात अबसे पहले सन् 1857 में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने 40 कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम ले कर किया था। बाद में अंग्रेज बढ़ते गये और यह समस्या विकट होती गयी। अंगेजों की यह प्रथा जूल्म की इंतिहा तक पहुंचने लगी। लेकिन सन् 1929 में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं।

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इस तरह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक नजरिये से भी बागेश्‍वर का यह मेला स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी लोगों में स्वतंत्रता की अलख जगाने का काम करता था। अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन के समय भी आंदोलनकारी इस मेले के जरिए एकजुट हुए।

बागेश्वर में बागनाथ मंदिर का निर्णाण कुमाऊं क्षेत्र के चंदवंशी राजा लक्ष्मी चंद ने सन 1602 में करवाया था. हालांकि, यहां 7वीं सदी से लेकर 16वीं सदी तक की मूर्तियां हैं। मान्यता है कि मार्कंडेय ऋषि यहीं रहा करते थे और भगवान शिव एक बाघ के रूप में इसी क्षेत्र में विचरण करते थे, जिस कारण इस जगह का नाम बागेश्वर पड़ा।

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