कांति चंद : चुनौतियों के बीच कुशल गृहिणी से सफल बागवान बनने की कहानी
PEN POINT, DEHRADUN : घर में पकवान बनाना हो या ग्राहकों के लिए ज्वैलरी डिजाइन करना या फिर सेब की बागवानी के साथ ही खेती बाड़ी करना। इतना ही नहीं, गांव कस्बे से लेकर देहरादून दिल्ली तक कार ड्राइव कर पति या परिवार के साथ चलना कांति चंद के लिए ये सारे काम एक समान ही मालूम होते हैं। बीरोंखाल पौड़ी गढ़वाल मटकुण्ड गांव की रहने वाली बहुमुखी प्रतिभा की धनी कांति चंद एक ऐसी ही गृहणी, कारोबारी किसान या कहें बागवान हैं, जिनके हुनर को देख कर कोई भी हैरान हो सकता है। कांति ने कभी सोचा तक नहीं था कि उन्हें जिंदगी में इतना सब कुछ करने का मौक़ा मिलेगा।
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पति का साथ, परिवार की जिम्मेदारी और वक्त ने बहुत कुछ करने का माद्दा पैदा कर दिया। कांति ने बताया कि वह बीरोंखाल ब्लॉक के लैंगल गाँव के एक सामान्य परिवार में पैदा हुई पली-पढ़ी और बड़ी हुई। चार बहनों और एक भाई में वो तीसरे नंबर की हैं, पिता सेना में थे, मां गृहणी के साथ आम पर्वतीय क्षेत्रों की महिलाओं की तरह खेती बाड़ी और घर संभालती थी। उनका काम स्कूल में पढ़ाई करना और घर में माँ के साथ सभी भाई बहनो का हाथ बंटाना था, जिसमें खेत-खलिहान से लेकर चूल्हा चौका बर्तन सब कुछ ही शामिल था। जनता इंटर कॉलेज कोटा पाली से बारहवीं तक की पढ़ाई की। 2000 में बारहवीं करने के बाद साल 2005 में उनकी शादी हुई। उनका एक बेटा है।
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कांति बताती हैं कि उनकी शादी बीरोंखाल ब्लॉक के ही मटकुण्ड गांव के एक परिवार में हुई। पति विजय पाल चंद का पुश्तैनी ज्वैलरी कारोबार है। बेटा होने के कुछ साल बाद पति ने एक दिन कहा कि अब दुकान में मेरे साथ कामकाज संभालो, पति ने जब ऐसा कहा, तो उनके साथ इस काम में जुट गईं।
हल्की-फुल्की क्रिएटिव होने के चलते वो इस काम में दिलचस्पी लेने लगी और बैजरो बाजार स्थित दुकान पर आकर पति के काम में हाथ बंटाने लगी। उनकी बैजरो से करीब 10 किमी दूर अपने मटकुण्ड गांव में खेती की जमीन और तिबारी नुमा पुश्तैनी मकान है। पति-पत्नी दोनों ने मिलकर यहां बगीचा लगाने का विचार बनाया और साल 2012-13 में सेब के बगीचे की शुरुआत की। खेती बाड़ी से जुड़ना पहाड़ के बेटे-बेटों के लिए तब बहुत सामान्य बात थी। लेकिन सेब की बागवानी का कोई अनुभव नहीं था। ऊपर से यह काम बहुत संवेदनशील और जम्मेदारी से भरा हुआ होता है। जबकि सबकुछ आपको खुद करना था। इस तरह कांति ने यहां बगीचा लगाने की शुरुआत की।
बागवानी विशेषज्ञों की देख रेख में प्रशिक्षित हुई और करीब 100 नाली से ज्य़़ादा जमीन पर सेब का बगीचा स्थापित कर लिया। इसके अलावा 50 नाली भूमि पर वह कीवी उत्पादन भी कर रही हैं। अब बगीचा पूरी तरह स्थापित हो चुका है और हर साल वह उसे विस्तार दे रही हैं।
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पहाड़ में पली बढ़ी इस महिला बागवान की एक और बड़ी बात ये है कि इस दौरान पति के स्वास्थ्य संबधी दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। ऐसे में कई काम-काज प्रभावित होने लगे, तो संघर्ष और बढ़ गया और विपरीत हालात सामने आ गए। कांति के सरल और हल्की मुस्कान लिए व्यक्तित्व को देख कर उनकी जीवटता का अंदाजा सहज तौर पर लगाना बेहद मुश्किल हो जाता है। ज्वैलरी शॉप का जिम्मेदारी भरा काम और ऊपर से बागवानी जैसा कदम उठाना, इतना आसान नहीं है, क्योंकि जानकार कहते हैं कि बाग़-बगीचों को बच्चों और परिवार के लोगों की तरह देखभाल की जरूरत पड़ती है। ऐसे में पति का स्वास्थ्य और दूकान-घर-गांव तक आना जाना करने के अलावा खेती में अन्य चीजों पर भी ध्यान देना और सब कामों का प्रबंधन करने के लिए कितनी ऊर्जा और कुशलता चाहिए। ये सोचना भर ही अपने आप में बड़ी जटिल स्थिति पैदा कर देता है।
इस सबसे निपटने के लिए उनके पति ने उन्हें जोर देकर कार चलना सीखने की सलाह दी। निष्कर्ष और मजबूत हौसले के साथ उन्होंने वहीं पहाड़ी सर्पीली सड़क पर कार ड्राइविंग सीखी और अपने कन्धों पर एक और बड़ी जिम्मेदारी उठा ली। क्योंकि पति स्वास्थ्य कारणों से ड्राइविंग नहीं कर सकते थे। अब कांति को गाँव से दुकान तक करीब रोजाना बीस से चालीस किमी तक आना जाना करना होता है। इतना ही नहीं जब कभी पति और बच्चे के साथ गांव से देहरादून-दिल्ली या किसी भी बड़े शहर का रुख करना होता है, तो उतनी बार दिन या रात में पहाड़ से लेकर शहर के भारी ट्रैफिक में बहुत जिम्मेदारी से ड्राइविंग करती हैं।
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कांति बताती हैं कि वे ज्वेलरी शॉप में ग्राहकों से डील करने, ज्वैलरी डिजायनिंग करने और बगीचे में फल उत्पादन से लेकर सप्लाई तक का काम खुद देखती हैं। वे कहती हैं कि महिलाओं को संघर्ष और मेहनत को अपनी ताकत बनाना चाहिए। उन्होंने बताया कि उनका बेटा इस समय देहरादून में बारहवीं में पढ़ रहा है। इसलिए उनका ज्यादातर समय दुकान बाग़-बगीचे में ही गुजरता है। सब कुछ के प्रबंधन के लिए टाइम टेबल बनाया है। सुबह पहले घर किचन के काम करने होते हैं। ऐसे में मेहमानों का आनाजाना भी लगा रहता है।
बागवानी के बारे में वो बताती हैं कि पौधे लगाने के लिए गड्ढा कर के मिट्टी, पानी, खाद वगैरह के साथ पौधे लगाने, गोबर से तैयार जैविक खाद का उपयोग करना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है। सेब के पौधों की सिंचाई के लिए ड्रिप एरिगेशन की व्यवस्था की है। सभी आधुनिक तकनीक का वो उपयोग कर रही हैं। इसके अलावा सामान्य तरीके से भी सिंचाई करती हैं। गर्मियों के मौसम में इन्हे ज्यादा ध्यान देने कि जरूरत पड़ती है। पानी से सिंचाई के अलावा यहाँ जंगलों में लगने वाली आग का ख़तरा बगीचे के लिए बना होता है। इस बार फायर सीजन में बगीचे को बड़ा नुक्सान भी पहुंचा। लगातार खरपतवार से भी बगीचे को बचना होता है। बगीचे में समय-समय पर निराई-गुड़ाई करने का काम भी वो खुद ही देखती हैं। सेब में लगने वाले रोग और संक्रमण पर नियंत्रण के लिए सही कीटनाशकों का छिड़काव सब कुछ देखना होता है।
कांति ने बताया कि शुरूआती समय में बहुत दिक्कतें आती रही कई बार लगा कि उनकी ये मेहनत परवान चढ़ेगी भी कि नहीं, लेकिन अब जब करीब दस साल का वक्त बीत गया है। बगीचा पूरी तरह स्थापित हो गया है और उसके अच्छे फायदेमंद रिजल्ट मिल रहे हैं, तो बड़ा सुकून मिलता है। बगीचे में पौधे लगाने से लेकर फल तोड़ने और उन्हें सर पर लादकर सड़क तक लाने और बाजार में पहुँचाने का काम भी कांति खुद करना पसंद करती हैं।
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कांति ने बताया कि सरकारी एप्पल मिशन से उन्हें काफी सहयोग मिला। लेकिन विपणन की उचित व्यस्वस्था न मिलने के करण वाजिब दाम नहीं मिल पाते, ऊपर से समय पर फसल को दूर बाजार तक पहुँचाने की चिंता रहती है। अभी उनके बगीचे से सेब और कीवी रामनगर, कोटद्वार, देहरादून दिल्ली जा रहे हैं, लेकिन ये खुले बाजार में न जा कर उनके अपने कुछ लोगों कि निजी मांग के उपयोग के लिए जा पा रहे हैं। इसके अलावा पैकिंग के लिए उत्तराखंड ब्रांड की पेटियां तक यहाँ नहीं मिल पाती हैं। लोकल बाजार में जितना उत्पादन होता है उतनी खपत नहीं होती।
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कांति कहती हैं कि पहाड़ों में खेती बागवानी बहुत अच्छा काम है। लेकिन यहाँ लोग दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। उन्होंने महिलाओं और युवाओं से बगीचे लगाना और अन्य खेती परक काम में हाथ आजमाने की अपील की है। वो कहती हैं कि यदि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ेगा, तो यहाँ पर फ़ूड प्रोसेसिंग इकाइयां स्थापित की जा सकती हैं। जिसमें स्थानीय बेरोजगार युवाओं को रोजगार के मौके मयस्सर किये जा सकते हैं। वेअपने बगीचे में कई तरह की छीमी श्रेणी की राजमा जैसी दालें भी उगा रही हैं।
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